Published On : Mon, Apr 13th, 2015

भंडारा : पवनी के इतिहास में महत्वपूर्ण रहा है धार्मिक बदलाव

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Pawani News
सवांददाता / नदीम खान

भंडारा। ‘विदर्भ की काशी’ उपनाम से प्रसिद्द भंडारा जिले के पवनी का इतिहास गौरवशाली रहा है. पवनी के विकास में जिस तरह से राजनितिक बदलाव के महत्वपूर्ण रहा है, उसीके साथ धार्मिक बदलाव के महत्व को नकारा नहीं जा सकता. पवनी में आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया की खुदाई के दौरान प्राप्त बौद्ध अवशेष पाए गए. पवनी में पाए गए प्राचीन स्तूप के स्तम्भ पर ‘हीनयान’ रेखा चित्र के साथ साथ पुराने टीले के पास पाए गए प्राचीन बौद्ध कालीन शिलालेखों से यह साफ़ पता चलता है की बुद्ध धर्म अपने प्रचार एवं प्रसार के शुरुवाती समय में विदर्भ में मौजूद था.

बौद्ध धर्म प्रसार का केंद्र
विदर्भ में बौद्ध धर्म के प्रसार का इतिहास काफी रोचक रहा है. इसको उजागर करने के लिए पारंपारिक बौद्ध वर्णन और साहित्य पर अवलंबित रहना पड़ेगा. यह वर्णन उस विशिष्ट समय के हैं जब गौतम बुद्ध द्वारा बताये गए नियमों के विवेचन में कुछ मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था. उस समय बौद्ध सभाएं आयोजित की गयी थी. उसी आयोजनों के वर्णन में पवनी के इतिहास से सम्बंधित जानकारी पायी गई है. इसी के साथ सम्राट अशोक की बौद्ध धर्म प्रसार में भूमिका को भी नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता. किंवदंतिओं की माने तो बौद्ध धर्म प्रसार के समय सम्राट अशोक ने संपूर्ण भारतवर्ष में स्तूपों का निर्माण किया. इन दो महत्वपुर्ण तथ्यों के प्रकाश में बौद्ध धर्म के प्रसार के शुरुवाती दौर में तीन महत्वपूर्ण चरणों का अभ्यास महत्वपूर्ण हो जाता है. प्रथम चरण में गौतम बुद्ध के काल में हुआ प्रसार, द्वितीय चरण में बुद्ध के बाद के शतकों में हुआ प्रसार और तृतीय चरण में सम्राट अशोक के काल में हुआ प्रसार.

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दैदीप्यमान इतिहास
पवन राजा की राजधानी के रूप में आज पवनी सर्वज्ञात है पर इस पर मौर्यों से लेकर शुंग, सातवाहन, मुंड, शक, वाकाटक, कलचुरी, यदु, मुस्लिम, गोंड और मराठा राजाओं ने समय समय पर राज किया है. उत्खनन में प्राप्त स्तूप की दीवारों और शिलालेख का अभ्यास सन 1935 में और सन 1969 में नागपुर विश्वविद्यालय के पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा किया गया है. इसी दौरान जगन्नाथ टेकडी, चनकापुरी और हर्दोली टेकडी के उत्खनन के दौरान जो स्तूप मिला वह भारतवंश के प्रसिद्द 12 स्तूपों में से एक है. इसका व्यास 42 मीटर है और आसपास 9 मीटर का प्रदक्षिणा पद है था. इस स्तूप का निर्माण छठे शतक से शुरू होकर सातवे शतक में संपन्न हुआ ऐसा अभ्यासक बताते हैं. यहाँ प्राप्त कुछ ताम्रपट एवं शिल्प मुंबई के प्रिंस ऑफ़ वेल्स म्यूजियम (छ. शि. महाराज वस्तु संग्रहालय) और नागपुर के अजब बँगला में आज भी सुरक्षित रखे हुए है.

चरम से पतन तक
ई.स. पूर्व 320 में सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने नन्द का पराभव कर भारतवंश पर एकछत्र सत्ता प्रस्थापिर की. पवनी में शिलालेखों के जानकारों के अनुसार ई.स. पूर्व 270 के आसपास मौर्य राजवंश के सम्राट अशोक को विदर्भ में योग्य सेनापति ना मिलने की वजह से इस क्षेत्र में राजनैतिक पकड़ उतनी मज़बूत नहीं थी. तब पवनी मौर्य वंशीय राजा ब्रिहदरथ के अधिपत्य में थी. ई.स. पूर्व 250 के आसपास ब्रिहदरथ के सेनापति शुंग वंशीय पुष्पमित्र ने राजा ब्रिहदरथ का वध कर सत्ता अपने हाथों में ले ली. कुछ सालों बाद इसी पुष्पमित्र शुंग राजा ने बौद्ध स्तूप की वेदिका (शिला) तैयार करवाई ऐसा उल्ल्लेख आता है. इस वेदिका की देखभाल करने वालो को महाक्षत्रक कहा जाता था. ऐसे ही एक शिलालेख से यह पता लगता है कि पुष्पमित्र के पुत्र अग्निमंत्र के काल में इस राज्य के पतन की शुरुवात हुई.

आज की पवनी
आज पवनी के पास रुयाल में भव्य महास्तूप का निर्माण किया गया है. बौद्ध पूर्णिमा और समय-समय पर इस जगह अंतर्राष्ट्रीय भदंत और अभ्यासकों की सभाओं का आयोजन होता है. वैनगंगा नदी के किनारे बसे अपने घाटों, मंदिरों, स्तूपों और हैंडलूम के इस शहर को राज्य सरकार ने भी विदर्भ के बुद्धा सर्किट का प्रमुख स्थल घोषित कर सुख सुविधाओं में इजाफा करने की घोषणा की है. अतीत की एक सुनहरी झांकी के रूप में पवनी आपको मोह लेगा इसमें कोई दो राय नहीं.

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