Published On : Tue, May 26th, 2015

मोदी सरकार : टकराव और असमंजस का पहला साल

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Modi And Bhagwatविशेष संवाददाता / दिव्येश द्विवेदी

नागपुर। लू के थपेड़ों से सहमे देश के पर केन्द्र की भारतीय जनता पार्टी नीत राष्ट्रीय गठबंधन सरकार की पहली वर्षगांठ मनाने का भारी दबाव बनाया जा रहा है. टेलीविजन समाचार चैनलों पर ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि जिससे लगे कि आजादी के बाद पहली बार ही इस देश में कोई सरकार काम करने आयी है. सरकार स्थापना का पहला सलाना जश्न मनाने के पहले भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज नेताओं ने नागपुर पहुँचकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर्वेसर्वा मोहन भागवत के समक्ष सिर नवाया. भागवत पुराण सुनने के बाद इन नेताओं के चेहरे देखते ही बनते थे. वहाँ दिल्ली में यह सरकार की तरफ से प्रत्येक मंत्री यह बताने का प्रयास कर रहा है कि इस देश में काम सिर्फ उन्होंने ही किया है. सरकार का यह पहला सलाना जश्न आरएसएस की नाराजगी की वजह से फीका है.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी संघ के निर्देश के बावजूद नागपुर नहीं पहुँचे हैं और माना जा रहा है कि वह अकारण नागपुर आकर देश में यह संदेश नहीं देना चाहते कि उनकी सरकार का रिमोट मोहन भागवत के पास है. सरकार और संघ के टकराव की वजह से मोदी सरकार का पहला साल अत्यंत असमंजस में बीता है, क्या संघ रूपी बेताल को पुन: पेड़ लटका मोदी सरकार आगे के चार साल जनहित के काम करेगी या फिर बेताल को कांधे पर बिठा कहानी सुनते-सुनते ही आगे के चार साल भी बिता देगी?

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एक साल, सब बेहाल

सबसे पहले यह साफ हो जाए कि यहाँ सरकार के साल भर के कामकाज का आकलन नहीं किया जा रहा है. किसी भी नई सरकार के कामकाज के आकलन के लिए साल भर का वक्त नाकाफी होता है. यहाँ केन्द्र की भाजपानीत राष्ट्रीय गठबंधन सरकार की नीयत और नीति के आकलन का प्रयास है, क्योंकि सरकार नई हो या पुरानी उसकी नीयत और नीति को समझने के लिए उसके सत्तारूढ़ होने के बाद के कुछ हफ्ते ही काफी होते हैं.

मोदी सरकार की नीयत साफ नहीं
सरकार को कामकाज संभाले एक साल हो गए, लेकिन आजतक इस सरकार की नीयत साफ नहीं हो पायी है. जो सरकार सबका साथ-सबका विकास के नारे के साथ सत्तारूढ़ हुई थी, वह पिछले साल में एक भी  ऐसा काम नहीं कर पायी है, जिससे यह अनुमान ही लगाया जा सके कि सरकार सचमुच इस देश के हर नागरिक का साथ चाहती हैं और इस देश के हर नागरिक का विकास करना चाहती है. पिछले एक साल में सरकार ने सिवाय असमंजस के इस देश के नागरिक को और कुछ नहीं दिया है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गत वर्ष जितने भी चुनावी सभाओं को संबोधित किया था, सभी में ललकार कर कहा था कि सरकार में आने के बाद उनकी पहली प्राथमिकता होगी मंहगाई को काबू में करना, देश का काला धन वापस लाना आदि. लेकिन सरकार में आने के बाद लगता है कि नरेन्द्र मोदी अपनी सभी चुनावी सभा की ललकार को महज फिल्मी डायलॉग समझकर भूल गए हैं. मंहगाई आज इतनी बेलगाम है कि आम आदमी का जीना मुहाल है, लेकिन सरकार का हर नुमाइंदा और भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह बार-बार यही दोहरा रहे हैं कि इस सरकार ने मंहगाई को काबू में कर लिया है, बस सब्जी, दूध, दलहन और तिलहन के दाम पर ही काबू नहीं पाया जा सका है. आखिर सरकार और भाजपा के नेताओं के इस बयान का क्या मतलब लगाया जाए?

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प्रधानमंत्री कि विदेश मंत्री

हिन्दी के जाने-माने लेखक प्रमोद सिंह ने पिछले हफ्ते फेसबुक पर एक टिप्पणी की, अरे, देश के लोगों अपने प्रधानमंत्री को बार-बार विदेश जाने के लिए मत कोसिए, बेचारे, पन्द्रह साल से अमेरिका के वीजा के लिए तरसते रहे थे. जैसे-तैसे वीजा मिला है, तो अमेरिका के साथ इस बेचारे को खूब दुनिया घूम लेने दीजिए, आखिर यह डर तो उनके मन में होगा ही कि जाने कब फिर से विदेश जाने पर पाबंदी लग जाए.
लेखक प्रमोद सिंह की इस टिप्पणी के निहितार्थ समझने की जरूरत है, जिसकी ओर किसी का ध्यान शायद अब तक नहीं गया है. नरेन्द्र मोदी जिस रफ्तार से दुनिया घूम रहे है, उससे हर समझदार आदमी को संदेह होने लगा है. एक साल के भीतर 18 विदेश यात्राएं, आखिर प्रधानमंत्री साबित क्या करना चाहते हैं? दरअसल, प्रधानमंत्री कुछ भी साबित नहीं करना चाहते. वह तो आगे के समय की तैयारी कर रहे हैं. इन विदेश यात्राओं में आज तक कोई भी बड़ा समझौता देश के हाथ नहीं लगा है. पिछले एक साल में जितने भी समझौते हुए हैं अतंर्राष्ट्रीय स्तर, उन सभी में एक बात सामान्य है, वह यह कि इन समझौतों में अदानी समूह के उद्योगों के लिए कुछ न कुछ व्यवस्था बनाना.

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संघ से टकराव

पिछले एक साल में मोदी सरकार और राष्ट्रीय स्वयंसेवक के बीच न जाने कितनी ही बार नीतिगत और नीयतगत टकराव देखने को मिला. संघ इस बात से बेहद खफा है कि नरेन्द्र मोदी जनहित के काम छोड़कर सिर्फ इस देश के पूंजीपतियों की ही भलाई में लगे हुए हैं. कहा जाता है कि सबका साथ-सबका विकास का नारा आरएसएस के विरोध के बावजूद गढ़ा गया था, लेकिन इस नारे को जिस तरह से भाजपा और नरेन्द्र मोदी ने हाशिए पर धकेला है, उससे भी संघ खुश नहीं है. क्योंकि इसी नारे की चमक की वजह से देश के हर मजहब, हर जाति के मतदाता ने भारतीय जनता पार्टी और उनके सहयोगियों को सत्ता के सिंहासन तक पहुँचाया था. हालाँकि मोहन भागवत सहित आरएसएस से जुड़े प्रत्येक संगठन के पदाधिकारियों ने समय-समय पर ऐसी बयानबाजी की कि लगे कि भारत में सिर्फ हिन्दू ही रह सकते हैं, लेकिन सबका साथ-सबका विकास के नारे के दबाव में संघ और भाजपा के बुद्धिजीवियों ने ऐसे बयानों से जल्दी ही मुक्ति भी पायी.

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बताया जाता है कि संघ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कार्यशैली से खासा नाराज है. प्रधानमंत्री ने जितने भी निर्णय पिछले एक साल में लिए हैं, उसमें संघ की सहभागिता नगण्य रही है. संघ चाहता है कि नरेन्द्र मोदी हर फैसले के पहले उनसे सलाह मशविरा करे, लेकिन प्रधानमंत्री अपने फैसले में किसी को सहभागी बनाने को तैयार नहीं है. इसीलिए संघ बार-बार ऐसे बयान देता रहता है कि जिससे कि नरेन्द्र मोदी पर दबाव बने और वह हारकर उनके पास आ जाएं, लेकिन नरेन्द्र मोदी की व्यूह रचना अब तो ऐसी रही है कि संघ को अपने हर बयान के बाद मुँह की ही खानी पड़ी है और जल्दी ही उसे अपने विवादित बयान से तौबा करना पड़ा है.

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संघ की मुश्किल

इसके पहले जब अटलबिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उनके हर निर्णय में अपनी नाक घुसेड़ता था. लेकिन नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने खुद को बहुत चालाकी से संघ के हर पैतरे से अलग कर लिया. संघ के जितने भी विवादित मुद्दे हैं, चाहे जम्मू-काश्मीर में धारा 370 का मामला हो, रामजन्मभूमि का मुद्दा, राम मंदिर का मुद्दा, समान नागरिक संहिता, चीन के साथ सीमा विवाद तथा शिक्षा के भगवाकरण का मुद्दा हो, नरेन्द्र मोदी ने अपने सरकार को संघ की हर विवादित महत्वकांक्षा से किनारा कर लिया है. लेकिन आरएसएस चुपचाप बैठने वाला संगठन नहीं है. पिछल एक साल में इस संगठन को जितने भी मौके मिले, उसने नरेन्द्र मोदी सरकार की मुश्किल बढ़ाने की कोई कसर नहीं छोड़ी. लेकिन बीते एक साल में संघ मोदी सरकार की मुश्किल बढ़ाने में नाकामयाब रहा है और यही संघ की सबसे बड़ी मुश्किल है.

भूमि अधिग्रहण बिल के बहाने मौका
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को फिलहाल मोदी सरकार ने अपनी टांग खींचने का मौका दिया है भूमि अधिग्रहण बिल के जरिए. संघ प्रेरित भारतीय मजदूर संघ, स्वदेशी जागरण मंच और किसान मंच लगातार सरकार पर इस बिल को वापस लेने अथवा इसमें संघ के सुझावानुसार संशोधन करने का दबाव बना रहे हैं. संघ के इसी असहयोग की वजह से मोदी सरकार को लोकसभा में पारित होने के बावजूद इस बिल में कुछ संशोधन करने पड़े हैं. राज्यसभा के पटल पर यह बिल है और बीते सत्र में यह तमाम विरोध और विरोधाभासों की वजह से पारित नहीं हो सका है.

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असमंजस की मोदी सरकार

जैसे कि हम पहले भी चर्चा कर चुके हैं कि मोदी सरकार की नीयत और नीति साफ नहीं है, इसलिए अब तक यह सरकार अपनी एक भी नीति देश के समक्ष लेकर नहीं आ पायी है. इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाए कि मोदी सरकार ने अपने एक साल के कार्यकाल में सिर्फ अपनी पूर्ववर्ती यूपीए सरकार की ही नीतियों को आगे बढ़ाया है. मोदी सरकार के इस कदम से देश का हर वह नागरिक नाराज है जिसने इस सरकार को सत्ता में पहुँचाने के लिए अपना बहुमूल्य वोट दिया था. मोदी सरकार का असमंजस असल में अब इस देश के हर उस नागरिक का असमंजस बन चुका है, जिसने इस सरकार को सत्तारूढ़ किया है.

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चार साल में उम्मीद

इस देश का नागरिक सिवाय यह उम्मीद पालने की कि आगामी चार साल में मोदी सरकार जरूर जनहित के काम करेगी और उन वादों को पूरा करेगी, जो चुनाव के दौरान इस देश के मतदाता से नरेन्द्र मोदी ने किया था. मोदी सरकार उन सपनों को जरूर पूरा करेगी, जिसे दिखाकर वह सत्ता के मद में चूर है और देश का आम नागरिक बेहाल जिंदगी जीने को अभिशप्त.

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नौकरशाही हावी

नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से केन्द्र में नौकरशाही बेहद मजबूत हुई है. नरेन्द्र मोदी ने नौकरशाही को अपने मंत्रियों से ज्यादा अधिकार सौंप रखे है. बताया जाता है यह उन्होंने संघ के सरकार के कामकाज में सीधे हस्तक्षेप से बचने के लिए किया है.

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मोदी सरकार के एक साल पर क्या सोचते हैं नागपुर के दिग्गज

dileep--devdhar-2_042514123431संघ की नीति का असर जल्दी ही दिखेगा : दिलीप देवधर
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े अध्येता दिलीप देवधर ने सेन्ट्रल टुडे से विशेष बातचीत में कहा कि नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार संघ ने ही बनाया था और संघ की ही मेहनत से वह जीतकर देश के प्रधानमंत्री बने हैं. सरकार के कामकाज से संघ नाखुश नहीं है. संघ ने नरेन्द्र मोदी के साथ मिलकर 2019 के हिसाब से योजना बनायी है. संघ और मोदी की योजना के परिणाम और उसके असर अगले साल तक दिखाई देने लगेंगे.

mg-vaidya_03-ahभूमि अधिग्रहण पर मतभेद : एम.जी. वैद्य
वरिष्ठ पत्रकार एवं संघ की विचारधारा के प्रचारक एम.जी.वैद्य कहते हैं कि सरकार और संघ के बीच भूमि अधिग्रहण को लेकर काफी मतभेद है. वह कहते हैं कि इस मतभेद का यह अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए कि संघ सरकार के कामकाज से खुश नहीं है. हालांकि संघ चाहता है कि इस देश का आम नागरिक मजबूत हो और सरकार के कामकाज से फिलहाल यह परिलक्षित नहीं हो रहा है, लेकिन हमें उम्मीद है कि जल्दी ही यह परिलक्षित होने लगेगा. भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में और विदेश नीतियों पर दृढ़ता से आगे बढ़ने में यह सरकार कामयाब रही है.

jamdarनई औद्योगिक नीतियों में त्रुटियां : विश्राम जामदार
संघ की औद्योगिक इकाई लघु उद्योग भारती के पूर्व अध्यक्ष विश्राम जामदार के अनुसार मोदी सरकार की नई औद्योगिक नीतियों में अनेक त्रुटियां हैं. अभी इन त्रुटियों को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसमें सुधार के लिए मोदी सरकार के पास प्रस्ताव भेज दिया गया है. सरकार ने जो मुद्रा बैंक की स्थापना की है, वह लघु उद्योगों के लिए वरदान साबित हो सकता है.

भूमि अधिग्रहण के तरीके पर आपत्ति : श्याम देशमुख
भारतीय मजदूर संघ के विदर्भ प्रांत उपाध्यक्ष श्याम देशमुख के अनुसार भूमि अधिग्रहण बिल पर हमें आपत्ति है. यह आपत्ति किसानों की जमीन के अधिग्रहण के तरीके को लेकर है. मुझे लगता है कि इस बिल को फिलहाल स्थगित कर, सरकार को किसानों की बुनियादी समस्याओं के बारे में फिर से अध्ययन करना चाहिए.  किसी भी उद्योग के लिए जरूरी जमीन ही अधिग्रहीत ही की जानी चाहिए और यह करते समय किसान की मर्जी का ख्याल जरूर रखा जाना चाहिए. सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश में खेती प्रमुख उद्योग है और बाकी के उद्योग बनावटी हैं. सरकार जब तब इस तथ्य को संजीदगी से नहीं समझेगी, मौजूदा बिल में बदलाव संभव नहीं दिखाई देता है. यदि सरकार ने प्रारूप में बदलाव नहीं किया तो संघ से जुड़े संगठन मोदी सरकार के इस फैसले के खिलाफ सड़क पर उतरेंगे.

Yoganand kaleअब तक की अधिग्रहीत जमीन पर श्वेत पत्र जारी हो : योगानंद काले
स्वदेशी जागरण मंच से जुड़े, प्रसिद्ध अर्थशास्त्री योगानंद काले मांग करते हैं कि अब तक जितनी भी केन्द्र अथवा राज्य सरकार ने किसानों से अधिग्रहीत की है, उन पर श्वेत पत्र जारी करे.  इससे इस देश में अधिग्रहीत जमीनों की स्थिति स्पष्ट होगी. भूमि अधिग्रहण के मामले में सरकार को कई अडिग रहने के बजाय कुछ उपाय समझने चाहिए, जैसे, किसी भी भूमि को अधिग्रहीत करने से पहले उस क्षेत्र के सत्तर प्रतिशत किसानों की हामी मिलना अनिवार्य बनाना चाहिए. सरकार के कामकाज के तरीके में व्यापक सुधार की गुंजाइश है. आज मोदी सरकार का इस देश की महज 40 फीसदी जनता से ही संवाद हो रहा है. ये 40 फीसदी जनता देश के शहरों में रहती है, लेकिन 60 फीसदी ग्रामीण और कम पढ़ लिखी आबादी से मोदी सरकार का संवाद शून्य है. मैं एक सुझाव यह भी देता हूँ कि सरकार को भूमि अधिग्रहण के तरीकों में किसान के सामाजिक स्तर की पड़ताल की व्यवस्था भी होनी चाहिए, इससे जरूरतमंद किसान की ही जमीन अधिग्रहीत की जा सकेगी.