- कृषि कार्य में आ रही बाधाओं से उपजे कई सवाल
- क्या वोट की राजनीति की उपज हैं योजनाएँ
- सरकार की नीतियाँ क्या जीवन स्तर उठाने में समझ हैं
- योजनाओं का लाभ किसे मिले इसकी समीक्षा हो
सवांदाता / अतुल कोल्हे
भद्रावती (चंद्रपुर)। सरकार ग्रामीण भागों की दरिद्रता दूर कर लोगों का जीवन स्तर उठाने के लिए विविध योजनाएँ संचालित कर रही हैं. उन योजनाओं के अंतर्गत अनुदान भी दे रही हैं. मगर अधिकतर लाभार्थी लाभ पाकर आलसी होते जा रहे हैं. इसका खुलासा सतही स्तर पर देखने को मिल रहा है. उदाहरण स्वरूप किसानों को लिया जा सकता है जिन्हें कृषि कार्य करने में कठिनाइयाँ पेश आ रही हैं. उन्हें अच्छे कृषि मजदूर मिलना अब कठिन हो चला है. ऐसे में कई सवाल खड़े हो रहे हैं जो भारत सरकार के लिए पूर्णत: विचारणीय है जिसकी समीक्षा किए जाने की सख्त आवश्यकता समय की माँग है.
बता दें कि सरकार ग्रामीण क्षेत्रों के बी.पी.एल. कार्ड धारकों के लिए 20 किलो चावल (6 रु.), 5 किलो गेहूँ (5 रु.) दे रही है. अंत्योदय अंतर्गत नागरिकों को 30 किलो चावल (3 रु.), 5 किलो गेहूँ (2 रु.), शक्कर प्रति यूनिट 400 ग्राम 13.50 रुपये की दर से राशन में उपलब्ध करा रही है. महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) अंतर्गत जिन्हें जॉब कार्ड दिया गया है, उन्हें 147 रुपये की मजदूरी, सावित्रीबाई फुले योजना स्वर्ण जयंती महोत्सव अंतर्गत अनुसूचित जाति, जनजाति की बालिकाओं के लिए शिष्यवृत्ति, सर्व शिक्षा अभियान अंतर्गत पहली से 8वीं के बालिकाओं को कपड़े, पुस्तकें दी जाती है. उसी प्रकार शिक्षा के लिए बालिकाओं के लिए साइकिल, जिला परिषद, समाज कल्याण व बाल कल्याण महिला अंतर्गत दिया जाता है. वहीं विभागों के मार्फत सिलाई मशीन, कम्प्यूटर प्रशिक्षण आदि के साथ किसानों को स्प्रे यंत्र, डीजल इंजन, पाइप, कोटरी तार, दवाइयां, बीज व घरकुल योजना अंतर्गत 100 प्रतिशत अनुदान, कुएँ के लिए कर्ज, बचत गटों को सब्सिडी व कर्ज, सब्सिडी पर गाय, भैंस आदि दिया जाता है. इससे सरकार सभी को समान जीवन जीने के लिए अमीर व गरीब के अंतर को कम करने का जो प्रत्यक्ष प्रयास किया जा रहा है, वह सर्वथा व्यर्थ होता नजर आ रहा है. इस योजनाओं के कारण प्रति व्यक्ति पर कर्ज बढ़ता जा रहा है वहीं दूसरी ओर लोग आलसी बनकर योजनाओं पर अवलम्बित होते जा रहे हैं.
इन योजनाओं द्वारा ग्रामीण भागों में गरीब किसानों को अब मजदूर मिलना कठिन हो गया है. मेहनत करने वाले मजदूर आज की स्थिति में पूरी तरह आलसी बन गए हैं. इससे जिनके पास ज्यादा कृषि जमीन है मजदूरों के अभाव में बेचने की नौबत आ गई है. उपरोक्त योजनाओं से मजदूर अपने कत्र्तव्य से विमुख होकर सरकारी योजनाओं पर आश्रित होते जा रहे हैं.
समझा जा रहा है कि ऐसी योजनाएं सिर्फ मतों की राजनीति करने वाले राजनीतिज्ञों की उपज है. जिसके कारण कृषि प्रधान देश में योजनाओं का लाभ पाकर आदमी दिन प्रतिदिन आलसी होकर देश पर बोझ ही बन रहे हैं.
अब ऐसे में सवाल उठता है कि इन योजनाओं को किस प्रकार से संचालित की जाएं ताकि जरूरतमंद लोग लाभान्वित भी हो और वे देश की प्रगति में अपना योगदान भी दे सके, यह सरकार को तय करना होगा वरना आने वाले दिनों में सरकारी योजनाओं का लाभ पाने वाला पूर्ण रूप से निकम्मा न हो जाए?
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