Published On : Fri, Sep 14th, 2018

रोजगार का पैग़ाम देती है हिंदी

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आज बहस का मुद्दा बना हुआ है कि हिंदी का भविष्य उज्ज्वल है या कि नहीं? हिंदी पढने से रोजगार मिलेगा या कि नहीं, बहुराष्ट्रीय कंपनियों में मोटी तनख़्वाह मिलेगी कि नहीं। रोजगार नहीं मिलेगा तो फिर हिंदी पढें क्यों? इंटरनेट पर जिन दस भाषाओं में सर्वाधिक सूचनाएं उपलब्ध हैं उनमें हिंदी का स्थान न के बराबर है। चिकित्सा,अभियांत्रिकी, सूचना प्रौद्योगिकी सहित कई विषयों की पाठ्य सामग्री की हिंदी में उपलब्धता नहीं के बराबर है।

भूमंडलीकरण के दौर में वही भाषा जीवित रहेगी जिसका भविष्य सुरक्षित हो और जिसे नई पीढ़ियाँ अपनाती हों, इसलिए नई पीढ़ियों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए हिंदी को सुदृढ़ करने की जरूरत है। हमें यह ध्यान देने की जरूरत है कि हिंदी को बेचारिगी की स्थिति में कौन लाता है? समाज के चंद अंग्रेजीदां लोग, जो हिंदी वाले को गंवारू समझते हैं। 69 वर्षों में हिंदी क्यों नहीं आ पायी? इसके कारण ढूँढ़ने होंगे। राजभाषा नीति बनने के बाद सारे संस्थानों के लिए हिंदी अधिकारी, अनुवादक के पद सृजित किए गए। हिंदी को कार्यालयीन भाषा के रूप में और भी सशक्त बनाने के लिए हिंदी इंस्पेक्टर (निरीक्षक) के पद सृजित किए जाने की जरूरत है।

अगर हिंदी को वैश्विक जगत में प्रतिष्ठा दिलानी है, वैसे भी हिंदी किसी प्रतिष्ठा की मोहताज नहीं है, यह निरंतर तीव्र गति से बढ़ रही है। आर्थिक उदारीकरण के दौर में हम जैसे-जैसे आर्थिक शक्ति के रूप में उभरेंगे हमारी भाषा की कद्र बढ़ती जाएगी और ये कार्य भाषाई समन्वय से हो सकता है केवल हिंदी-हिंदी करने से इसका भला नहीं हो सकता है। जब हम सारी भारतीय भाषाओं को साथ लेकर चलेंगे तो हिंदी अपने आप बढ़ती जाएगी। वैश्विक फलक पर यह भाषा अपना परचम लहरा रही है। अमेरिका में ही पहले 28 विश्वविद्यालयों में हिंदी की पढ़ाई कराई जाती थी। दुनिया के करीब 250 विश्वविद्यालयों में हिंदी भाषा में शोध व अनुसंधान का कार्य हो रहा है। कैंब्रिज विश्वविद्यालय के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष सत्येंद्र श्रीवास्तव ने कहा था कि हिंदी की कद्र का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पेंगुइन, मैकमिलन, ऑक्सफोर्ड जैसे प्रकाशक हिंदी में अपना संस्करण निकाल रहे हैं। आस्ट्रेलिया के रूपर्ट मर्डोक ने भी हिंदी की ताकत को समझकर ही अपने टीवी चैनल को हिंदी में शुरू किया, आउटलुक को भी अपना भविष्य हिंदी में ही दिखा। आज आई.ए.एस. टॉपर का साक्षात्कार पढ़िए तो आप पायेंगे कि हिंदी माध्यम से पढ़ाई कर उन्होंने कीर्तिमान स्थापित किए हैं।

मैकलुहान ने जिस वैश्विक ग्राम की कल्पना की थी आज हम उसी वैश्विक ग्राम के वासी होकर ज्ञान के सागर में डुबकी लगा रहे हैं। एक अरब से भी अधिक नागरिकों के भारत तेज गति से विकसित हो रही अर्थव्यवस्था के कारण विश्व को अपनी ओर देखने के लिए विवश कर दिया है। किसने सोचा था कि अमेरिकन प्रशासन एक दिन बोल उठेगा कि 21वीं शताब्दी में राष्ट्रीय सुरक्षा और समृद्धि के लिए अमेरिकी नागरिकों को हिंदी सीखनी चाहिए। तात्पर्य यह है कि दुनिया हमें बड़ी उत्सुकतापूर्वक देख रही है। डॉ. जयंती प्रसद नौटियाल के ‘भाषा शोध अध्ययन 2005’ को ही देखें तो हम पाते हैं कि विश्व में हिंदी जाननेवालों की संख्या एक अरब दो करोड़ पच्चीस लाख, दस हजार तीन सौ बावन है जबकि चीनी जानने वालों की संख्या नब्बे करोड़ चार लाख छह हजार छ सौ पंद्रह है। भारत में ही इसे बोलने व समझने वाले अस्सी करोड़ पचास लाख इकहत्तर हजार चार सौ सरसठ लोग हैं। इसप्रकार यह विश्व में सर्वाधिक बोली व समझी जानेवाली भाषा है। यहाँ यह कहना समीचीन होगा कि मीडिया ने हिंदी को जनेऊधारी से बाहर निकाल कर आम जनों तक में प्रसार करने में अप्रतीम भूमिका निभाई है। साथ ही, बहुराष्ट्रीय कंपनियों की हिंदी को रोजगार की भाषा बनाने में महती कृपा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ बाज़ार की माँग के अनुरूप मीडिया द्वारा अपना संदेश हिंदी में देने लगी। हालांकि मीडिया में किस प्रकार की हिंदी प्रचलित हो रही है, यह अलग बहस का मुद्दा है।

देशभर में मनोरंजन व समाचार के तकरीबन 450 चैनल हैं जिनमें करीब 350 चैनल बाजार में प्रतिस्पर्धा कर रही हैं। पूँजीपतियों के द्वारा वैश्विक बाजार पर कब्जा किया जा रहा है। बाजार विस्तार के लिए जो मीडिया फर्में सक्रिय हैं उनमें से ज्यादातर अमरीकी या पश्चिमी यूरोप व जापान की कंपनियाँ हैं। ये मीडिया फर्में बाजार पर कब्जा जमाने की होड़ में हिंदी में संदेश विज्ञापित करवाती है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा हिंदी को गले से लगाना तो सर्वविदित है तथा हमारे समाज के चर्चित तथा मनोरंजन हेतु जनित सास बहु के झगड़े को भी शीत पेय की बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ कोका कोला और पेप्सी के हिंदी विज्ञापनी महासमर ने मात कर दिया है। चुनाव प्रचार में हिंदी में प्रेषित संदेश पप्पू मत बनिए काफी प्रभावकारी रहा। दरअसल हिंदी अब केवल जनसामान्य की भाषा ही नहीं रह गई है बल्कि बाजार की एक मजबूरी भी बन गई है। रिमोटीय कंट्रोल से हर चैनलों पर विज्ञापन हिंदी में बोलते दिखेगा। हिंदी चाहे विज्ञापन की भाषा के रूप में हो या किसी अन्य विधा में उसका प्रभाव किसी सीमा तक नहीं रहता बल्कि विभिन्न प्रचार-प्रसार माध्यमों से भूमंडल में विस्तृत हो जाता है।

वर्तमान सदी साइबर सदी के नाम से जाना जाएगा। इत्‍तेफ़ाक से हिंदी तकनीक की भाषा के रूप में फिसड्डी है। हालांकि इस ओर भी हिंदी तेजी से अपना पाँव पसार रही है। माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनी का हिंदी में आना वर्तमान जरूरतों की भरपाई करता है। प्रसिद्ध सर्चइंजन गूगल के प्रमुख एरिक श्मिट का मानना है कि अगले पाँच-दस वर्षों में हिंदी इंटरनेट पर छा जाएगी और अंग्रेजी व चीनी के साथ हिंदी इंटरनेट की दुनिया की प्रमुख भाषा होगी। इंटरनेट पर हिंदी के प्रयोग की सबसे बड़ी कठिनाई हिंदी फॉन्ट की है। हिंदी के फॉन्ट में एकरूपता के अथक प्रयासों से यूनिकोड की उपलब्धि ने हिंदी फॉन्ट को एकरूपता देने का प्रयास किया है। देश-विदेश से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र-पत्रिकाओं के ऑनलाइन संस्करण पोर्टल, ब्लॉग, पोडकास्टिंग आदि की उपलब्धता ने रोजगार के कई अवसर खोले हैं। हिंदी चैनलों के कार्यक्रम निर्माण में लोगों को मोटी तनख्वाह पर रखा जा रहा है। हिंदी एनिमेशन का कारोबार वैश्विक बाजार को लुभा रहा है। बॉलीवुड ने हिंदी को चोटी तक पहुँचाया है। कहा जाता है कि हरिवंश राय बच्चन ने कविता के माध्यम से जितनी भी हिंदी की सेवा की हो उससे कहीं ज्यादे उनके पुत्र अमिताभ ने बॉलीवुड फिल्मों के माध्यम से की है। भूमंडलीय स्तर पर हिंदी गानों के बोल व राग सुनाई पड़ते हैं। हिंदी को भूमंडल पर गाना बजाना,साहित्य का रंग-बिरंगा तराना आदि इसे विश्व भाषाओं में एक सयाना का दर्जा दिए जा रहा है। हिंदी फिल्में केवल गीत-संगीत, नृत्य संवाद का रंगीन पिटारा लेकर भूमंडल में ही नहीं घूमती है बल्कि इसके साथ हमारे देश की सभ्यता और संस्कृति भी पायल की रून-झुन की तरह विश्व से एक रागात्मक स्थापित कर रही है।

प्रथम से ग्‍यारहवें विश्व हिंदी सम्मेलनों में विश्व की सर्वाधिक बोली व समझी जानेवाली भाषा हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा दिलाने के लिए प्रयास किया जा रहा है परंतु अभी तक कोई सार्थक परिणाम सामने नहीं आया है। इसका मूल कारण है प्रस्ताव के प्रति हमारा दृष्टिकोण भावनात्मक अधिक व तथ्यपरक कम है। सच तो यह है कि हिंदी का रोना रोने वालों को भी अंग्रेजी से ही मोह दिखता है। उनकी हिंदी हृदय की हो गई है दिल तो अंग्रेजी से भरा है। 1945 में संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के समय पाँच आधिकारिक भाषा: अंग्रेजी, रूसी, चीनी, स्पेनिश एवं फ्रेंच था,छठवें भाषा के रूप में अरबी को सन 1973 में शामिल किया गया। अमेरिका, ब्रिटेन और रूस जैसे शक्तिशाली राष्‍ट्रसंयुक्त राष्ट्र में स्थापना से जुड़े हैं अतएव अंग्रेजी, रूसी को स्थान मिलना ही था। विश्व की तत्कालीन सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषा चीनी (मंदारिन) को स्थान मिलना स्वाभाविक था। स्पेनिश यूरोप की एक सशक्त भाषा है इसी प्रकार फ्रेंच यूरोप में प्रभावशाली तथा बहुसंख्यकों द्वारा बोली जानेवाली भाषा है इसलिए इन पाँचों भाषा को आधिकारिक भाषा में रखा। प्राकृतिक तेल एवं गैस वाले अरबी (खाड़ी) देशों की भाषा फारसी को शामिल किया गया। हिंदी पर अभी तक कोई ध्यान नहीं दिया गया है। यहाँ यह साफगोई है कि संयुक्त राष्ट्र में प्रतिष्ठित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र की कार्यावधि नियमावली के नियम 51 में संशोधन करना होता है। यह संशोधन तभी संभव है जब इसके कुल सदस्य देशों 192 में से आधे से अधिक सदस्य देश अर्थात 97 देश हमारे प्रस्ताव का समर्थन करें। इसके लिए यह आवश्यक कि सदस्य देशों के शासनाध्यक्षों, विदेश मंत्रियों और संयुक्त राष्ट्र में उनके प्रतिनिधियों से मिलकर इस प्रस्ताव के पक्ष में अनुकुल वातावरण तैयार किये जाएं। इसे सार्थक करने के लिए हिंदी के पक्ष में तर्क रखने वाले प्रतिनिधियों का शिष्ट मंडल भेजा जाना चाहिए जो कि विभिन्न देशों का समर्थन जुटा सकें। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने के लिए भारत सरकार को आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई जानी चाहिए।

संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषाओं के साहित्य का अनुवाद हिंदी में हो जाता है तो यह भी एक सार्थक प्रयास होगा क्योंकि जापान, जर्मनी, इजराइल आदि देश अपनी भाषाओं को यह प्रतिष्ठा दिलाने के लिए प्रयासरत हैं। इन देशों ने संयुक्त राष्ट्र के दस्तावेजों का अनुवाद करना शुरू भी कर दिया है। इन देशों के प्रतिनिधि वहाँ अपने-अपने देश की भाषाओं में विचार व्यक्त करते हैं। इस दिशा में भारत को भी आगे आना चाहिए। हिंदी को संयुक्त राष्ट्र में स्थान मिलने से हिंदी में रोजगार के अवसर खुलेंगे। अंग्रेजी ने विश्व की क्लासिक रचनाओं का अनुवाद कर लिया है रोलां बार्थ, टॉल्सटाय जैसे विद्वानों को हमने अंग्रेजी के माध्यम से जाना है। अगर हिंदी में यह काम होता है तो मौलिक सोच पैदा हो सकती है।

संक्षिप्त रूप में कहा जा सकता है कि हिंदी उद्योग का रूप धारण कर चुकी है। हिंदी पढ़कर केवल कहानी, कविता पढ़ानेवाले शिक्षक ही नहीं बन सकते हैं आप, अपितु सॉफ्टवेयर इंजीनियर ही क्या मीडिया, फिल्म, एनीमेशन,बैकिंग, कॉल सेंटर सहित बहुराष्ट्रीय कंपनियों में भी रोजगार कर सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र में हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा मिलती है तो निश्चित रूप से रोजगार के अवसरों में गुणात्मक वृद्धि होगी। विश्व में हिंदी की तो जय हो रही है पर अपने ही घर में यह परायी होती जा रही है। एक शायरी मुझे याद आ रही है-

मेले में भटके होते तो शायद मुझे कोई घर पहुँचा जाता,

हम तो घर में ही भटके हैं भला मुझे कौन पहुँचाएगा?

लेखक डॉ अमित कुमार विश्वाश

महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय,वर्धा में सहायक संपादक है