Published On : Fri, Sep 14th, 2018

हिंदी की नई फसल सींचते कार्टून चैनल

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आज हिंदी को विश्व भाषा के रूप में स्थापित करने के लिए प्रयास हो रहे हैं। निश्चित रूप से हिंदी भाषा सांस्कृतिक, वैज्ञानिक और शब्द भंडार की दृष्टि से एक समृद्ध भाषा है। लेकिन समस्या यह है कि हिंदी आज भी भारतवर्ष में ही कई मोर्चों पर धक्के खा रही है। कभी फैन्सी रेस के चक्कर में पिछड़ जाती है, कभी प्रशासनिक पचडे़ में उलझ जाती है तो कभी क्षेत्रीयता के खूँटों से फँसकर गतिहीन हो जाती है। हिंदी की इसी लाचारी को देखते हुए कभी भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री अटलबिहारी बाजपेयी जी ने एक कवित्त किया था-

बनने चली विश्व-भाषा जो,
अपने घर में दासी;
सिंहासन पर अँग्रेजी है,
लखकर दुनिया हाँसी;
लखकर दुनियाँ हाँसी,
हिन्दीदाँ बनते चपरासी;
अफसर सारे अँग्रेजीमय,
अवधी हों या मद्रासी;
कह कैदी कविराय,
विश्व की चिन्ता छोड़ो;
पहले अपने ही घर में,
अँग्रेजी के गढ़ को तोड़ो!

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आज किसी भी घर में चले जाइए तो वहाँ का ऐसा दृश्य देखने को मिलता है कि बच्चा अंग्रेजी मीडियम की किताबों के बोझ के तले दबा हुआ है, सुबह-शाम अंग्रेजी का नाटक करता हुआ खाना-पीना, दुआ-सलाम और खेलकूद सबकुछ अंग्रेजी में ही निपटाने को मजबूर है। भारतवर्ष में चाहे वह बंगाली हो या फिर पंजाबी, कश्मीरी हो या फिर मलयाली सभी अपने बच्चों को अंग्रेजी की रेस में दौड़ा रहे हैं। लेकिन इतनी धमाचौकड़ी के बाद भी हिंदी में इतनी जीवंतता है कि वह अपना अस्तित्व, अपना विकास और अपनी उपस्थिति बना ही लेती है। अँग्रेजी के इस फरेबी जाल में सेंध लगाने का काम आज हिंदी कार्टून कर रहे हैं।

आज हम आज उन नन्हे-मुन्नों की बात करना चाहते हैं जिन्होंने अपनी तोतली भाषा में हिंदी को जिंदा कर रखा है। जरा याद कीजिए सन 1993 का वह वक्त जब रविवार के दिन टीवी पर एक धुन पूरी मौज के साथ बज उठती थी…

‘‘ जंगल-जंगल बात चली है, पता चला है,
चड्डी पहन के, फूल खिला है, फूल खिला है।’’

याद आया! वह वक्त कितना खुशनुमा हुआ करता था। बच्चे मोगली, बगीरा, अकडू-पकडू और शेर खान की दुनिया में खो जाते थे। बड़ी मासूमियत के साथ, यह हिंदी कार्टून बच्चों को हिंदी सिखा रहा था। रूडयर्ड किपलिंग की रचना ‘द जंगल बुक’ पर आधारित इस कार्टून में कभी-कभी अभिवादन के शब्द, कभी एकीकरण का संबोधन, कभी नेतृत्व के ओजस्वी भाषण और ना जाने किस-किस तरह के भाव विचार वाले शब्द आया-जाया करते थे। शेर खान के आने पर होने वाली घबराहट हर बच्चे ने महसूस की जिसे हिन्दी ने ही महसूस करवायी। कितने सुंदर तरीके से हिंदी का प्रस्तुतीकरण होता था और नन्ही पौध इस हिंदी के रस से सराबोर हो जाती थी।

ऐसा ही एक और बिन्दास कार्टून कार्यक्रम ‘डक टेल्स’ था जिसे वाल्ट डिज़्नी टेलीविजन एनीमेशन ने बनाया था। इसमें अपार दौलत के स्वामी अंकल स्क्रूज अपने तीनो भतीजों ह्यूई, ड्यूई और लुई के साथ कुछ न कुछ एडवेंचर किया करते थे। अंकल की बातें और बच्चों के कारनामे इस कार्यक्रम की जान थी। यह दूरदर्शन की अनमोल धरोहरें साबित हुईं जिनके साथ हिंदी की एक पूरी पीढ़ी तैयार हो रही थी। आज उस समय की पीढ़ी अति व्यस्ततम जनसंख्या में विलीन हो गई है लेकिन अब उनके बच्चे फिर वही वक्त जी रहे हैं और टी.वी. पर अपने मनपसंद कार्टून कार्यक्रमों को देखते हुए हिंदी की खूबियाँ सीख रहे हैं। आजकल अक्सर बड़ों की शिकायत होती है कि उन्हें टी.वी. देखने का मौका नहीं मिलता है क्योंकि बच्चे ही कार्टून चौनलों में मशगूल रहते हैं। आइए जरा देखते हैं कि इस नई पीढ़ी को हिंदी सिखा रहे ये कार्टून चैनल कौन से हैं और इनके माध्यम से हिंदी कैसे हमारी नई पीढ़ी तक पहुंच रही है?

आजकल बच्चों में सबसे मनपसंद कार्टून कार्यक्रमों में ‘छोटा भीम’ है। छोटा भीम का मुख्य चरित्र बालक भीम है जो लड्डू खाकर बलवान हो जाता है और सारी मुसीबतों, समस्याओं को चुटकियों में हल कर देता है। उसके साथ उसके साथी भी हैं जिनमें छुटकी, राजू, जग्गू, कालिया, ढोलू, भोलू और कीचक हैं। इनके संवाद रोचकता से पूर्ण हैं। शब्दों चुनाव सरल हैं और पात्रों के नाम भी बिलकुल ठेठ देशी, जाने-पहचाने और हिंदी जगत के ही हैं।

भारतवर्ष में, आज चीनी, जापानी और कोरियन एनीमेशन से बने हुए बहुत से कार्टून कार्यक्रम पेश किए जा रहे हैं। इससे हिंदी अनुवाद का बाजार भी बहुत तेजी से बढ़ा है। बच्चों के कार्यक्रम का अनुवाद करना भी कठिन काम है क्योंकि यहाँ केवल संदेश भेजना ही नहीं है बल्कि संदेश के साथ भावना का संचार करना भी बेहद जरूरी है। इसलिए बच्चों के लिए अनुवाद की भाषा बहुत ही नरम, बहुत ही रोचक और सरल होना अति आवश्यक है। ‘डोरेमोन’ एक ऐसा ही कार्यक्रम है जिसमें बच्चे डोरेमोन के साथ बिल्कुल खो जाते हैं। डोरेमोन, वास्तव में, एक रोबोट है जो नोबिता के पास रहता है। बच्चों की इच्छाएं असीम होती हैं। वह हमेशा असंभव और दुर्लभ चीजें प्राप्त कर लेना चाहते हैं और यह रोबोट नोबिता की ऐसी ही इच्छाओं को पूरा करता रहता है। कभी उसे पहाड़, कभी समुद्र तो कभी हिमयुग में ले जाता है। जब कभी नोबिता अपनी दोस्त शिजुका को खुश करना चाहता है तो भी डोरेमोन उसकी मदद करता है और जियांग से झगड़ा होने पर भी। इस प्रकार डोरेमोन बच्चों की काल्पनिक दुनिया का हीरो बन गया है। जब नोबिता कुछ गलती करता है तो डोरेमोन उसे बड़ो की तरह समझाता है। उसके समझाइश देते वक्त प्रयोग की जाने वाली भाषा बच्चों को इस कदर प्यारी लगती है कि वे भी अपने सामान्य जीवन में माता जी से क्षमा माँगना, पिताजी की चीजों को सँभाल के रखना और दोस्तों से झूठ ना बोलना जैसे संस्कार प्राप्त कर लेते हैं। आज के व्यस्त माता-पिता शायद ये सब अपने बच्चों को न दे पाएं। यह सभी हिंदी के माध्यम से ही संभव हो पा रहा है। बच्चे सहज अपनी भाषा में मनोरंजन का भंडार पा रहे हैं और अच्छी सीख भी पाते हैं।

कार्टूनों की बात करें तो ‘मोटू पतलू’ भला कैसे छूट सकता है? यह तो बच्चों के लिए हँसी का भंडार है। मोटू की अक्ल भी थोड़ी मोटी है। वह अक्सर करने कुछ जाता है पर हो कुछ और जाता है। कार्टून में शब्दों का चुनाव बड़ा ही सुंदर है। अक्सर उसकी ज़बान पर ‘‘बड़े भैया! बड़े भैया! डॉक्टर झटका!!’’ सुनने को मिलता है। मोटू के बोलचाल में सम्मानजनक शब्दों का विशेष स्थान है। वह हर किसी से प्रेमपूर्वक और आदर भाव के साथ मिलता है। बहन जी! माता जी! ऐसे शब्द उसकी शब्दावली में है। मोटू, हमेशा जॉन नाम के खलनायक के कारण हमेशा मुसीबतों में फँस जाता है। जॉन का चरित्र भी खूब गढ़ा गया है। वह हमेशा हिन्दी फिल्मों के डायलॉग बोला करता है, ‘‘जॉन को पकड़ना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।’’ इस बदमाश को पकड़ने के लिए एक पुलिस वाला भी है, इंस्पेक्टर चिंगम। चिंगम भी हमेशा हिंदी फिल्मी डायलॉग बोलता है। जॉन का एक साथी बात-बात पर कविता बनाने लगता है। इससे कम से कम बच्चों तक कविता नाम की चीज या कविता बनाने की प्रक्रिया और कविता से मिलने वाले आनंद का संदेश तो जाता ही है।

‘ऑगी एण्ड द कॉक्रोचेज’ एक ऐसा कार्टून है जिसमें फिल्मी कलाकारों के आवाजों की नकल का सहारा लिया गया है। इसमें नाना पाटेकर, शाहरुख खान और सनी देओल जैसे हिंदी सिनेमा के स्थापित कलाकारों की आवाजों की नकल है। कार्टून में एक कुत्ता बिल्ला है। जिसके घर में रहने वाले तीन कॉकरोचों से वह हमेशा तंग रहता है। उसका बड़ा भाई बॉब है जो उसकी मदद तो करता है लेकिन खुद भी परेशानियों में फँस जाता है। ऑगी के डायलॉग लाजवाब है उसका हर वाक्य कोई न कोई हिंदी मुहावरे, लोकोक्ति या फिल्मी डायलॉग होता है। खाना बनाते समय धुँआ ज्यादा निकल जाए तो वह बोलता है ‘बुरी नजर वाले तेरा मुँह काला’, अगर उसकी गाड़ी नदी में गिर जाए तो ‘गई भैंस पानी में’, दुकान पर कुछ ज्यादा मिल जाए तो ‘आम के आम गुठलियों के दाम’, अंग्रेजी की चमक में चौधिंयाए लोग अपनी भाषा के लिए जो नहीं कर रहे हैं, वह काम ये हिंदी कार्टून कर रहे हैं?

आज तकनीकी रूप से कार्टूनों की दुनिया बहुत ही सफल हो गई है तकनीकी सुविधाओं का ही परिणाम है, एक जबरदस्त कार्टून धारावाहिक ‘बबलू डब्लू’ इसमें बबलू और डब्लू दो भालू हैं जो जंगल में रहते हैं। जंगल की कटाई करने वाला ‘लक्खा’ एक लकड़हारा है जो जंगल को धीरे-धीरे काट रहा है। बबलू-डब्लू जंगल को बचाना चाहते हैं। इसके लिए उनकी हमेशा लक्खा से लड़ाई होती रहती है। बबलू-डब्लू के आपसी संवाद बड़े ही चुटकुलेदार हैं। बबलू एक अकलमंद बेवकूफ भालू है और डब्लू एक मंदबुद्धि दुलारा भालू है। बब्लू की वाणी में अधिकार दिखता है, उसकी संवाद अदायगी बच्चों को बहुत भाती हैं। जरा डब्लू के इस संवाद का वजन देखिए- ‘ऐ टकले लक्खा! तुझमें दम है तो हमें हराकर दिखा!!’’ यह वाक्य बच्चों में भी ऊर्जा भरने का काम करता है। अपने खेल-खेल में, वे अक्सर इन चुटीले वाक्यों का इस्तेमाल करते हैं और हिंदी के संवाद संप्रेषण का आनंद उठाते हैं। इससे संवाद कला भी विकसित हो रही है।

इस तरह हम देख रहे हैं कि आज ना जाने कितने कार्टून चैनल रोज हिंदी में देखे जा रहे हैं और इस तरीके से हिंदी हमारे नन्हे-नन्हे बच्चों के माध्यम से संरक्षित और सुरक्षित हो रही है। पर बड़े तो उन्हें अंग्रेजी का नकलची बना लेना चाहते हैं। जिस प्रकार किसी जमाने में हिंदी सिनेमा जगत ने हिंदी साहित्य, सिनेमा और संस्कृति को संवर्धित किया था, आज उसी प्रकार हिंदी कार्टून चैनल बच्चों को हिंदी सिखा रहे हैं। आजकल खेल-खेल में बच्चे एक दूसरे पर खूब हिंदी मुहावरे और लोकोक्तियों का इस्तेमाल कर रहे हैं। इन चीजों को हम कभी बैठ करके नहीं पढ़ाते थे। बच्चे आज उन्हीं चीजों को हँसते-खेलते सीख ले रहे हैं। बच्चों को कोई भी माता पिता अँग्रेजी कार्टून देखने के लिए विवश नहीं कर सकता है। हिंदी या अपनी भाषा में मनोरंजन प्राप्त करना किसी व्यक्ति का विशेषाधिकार है। इस बात को शायद विदेशी एनीमेशन इण्डस्ट्री समझती है पर हमारे ऑफ्टर इण्डीपेन्डेंस सिटीजन नहीं।

टेलीविजन पर रामायण और महाभारत जैसी कालजयी धारावाहिकों ने अपने प्रसारण काल में जो प्रसिद्धि हिन्दी प्रस्तुति के कारण प्राप्त की वैसी फिर देखने का न मिली। इन धारावाहिकों ने पूरे देश को भी जोड़ने का भी काम किया था। अब वही काम हिन्दी के ये कार्टून चैनल कर रहे हैं। बच्चा चाहे वह गुजरात का हो या बंगाल का, कश्मीर में हो केरल में आज सबसे ज्यादा कार्टून हिंदी में ही देखे और समझे जा रहे हैं। कार्टूनों में बच्चे हिन्दी भाषा की शिक्षा पा रहे हैं। हिंदी लोकोक्तियों और मुहावरों में कितनी जबरदस्त ताकत होती है। आग लगे, भाड़ में जाए जैसे मजबूत अभिव्यक्ति आपके पूरे मनोगत को उड़ेल देती है। कार्टून हिन्दी साहित्य की इन बारिकियों को सीखने और समझने का भी अच्छा माध्यम बन रहे हैं। परिस्थितिजन्य अवस्था में सही वक्त पर मुहावरों का प्रयोग, बच्चों में उनका सही प्रयोग सिखाता है। कार्टून चरित्रों को कारण बहुत से बच्चे हिंदी गिनतियों से परिचित हो रहे हैं। यहाँ कहना होगा कि अँग्रेजी माध्यम के बच्चे में गुणा करने की क्षमता देशी माध्यम के बच्चे की अपेक्षा बहुत कम होती है। अँगेजी माध्यम के बच्चे में पहाडे़ की सीमा केवल 10 तक है जबकि एक हिंदी या देशी माध्यम का बच्चा कहिए कि 50 तक पहाड़ा सुना दे। तो भला बताइये कि 39 गुणा 7 का उत्तर कौन तेजी से देगा? अँग्रेजी से पढ़ने वाला के.जी. से पी.जी. तक डिक्शनरी लटकाए फिरेगा और यदि एक बार केवल हिंदी सिखा दी तो वह हिंदी या अपनी मातृभाषा में गणित, विज्ञान, साहित्य और हिसाब सबकुछ कर लेगा।

हिन्दी दिवस पर हमें दरकार है केवल इच्छाशक्ति की जिसे हम खो रहे हैं। एक अनपढ़ बालक भी अपनी भाषा में अपने नगर की सारी खूबियाँ बता सकता है। लेकिन एक पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी दूसरी भाषा में अपना व अपने शहर का अच्छा परिचय नहीं दे सकता है। वह मौन या आत्मविश्वासहीन होकर खड़ा रहेगा। हमें अपनी भाषा की कीमत को समझना होगा। कहा जाता है कि कोयल अपनी भाषा बोलती है इसलिए आजाद रहती है और वहीं तोता जो दूसरों की भाषा की नकल करता है वह हमेशा पिजरे में बंद गुलाम रहता है। इसीलिए भारतेन्दु जी ने कहा था कि-

‘‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।’’

आज फिर से हिंदी सहेजी जा रही है लेकिन माध्यम हिंदी कार्टून बन रहे हैं। भले ही व्यवसायिक नजरिए से ही हो, पर पूरी दुनिया में फैले भारतवंशी और उनके बच्चे भी ऐसी ही तरकीबों से हिंदी सीख रहे है। हिंदी का गूढ़ार्थ उन्हें प्रायोगिक तरीके से समझ आ रहा है। सरकारी प्रयासों के साथ-साथ हमारी मानसिक दृढ़ता भी रही तो हिंदी को विश्वभाषा बनने में देरी नहीं है।

( डॉ. जय प्रकाश )
राजभाषा प्रभारी, कर्मचारी राज्य बीमा निगम, नागपुर।

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