Published On : Thu, Dec 22nd, 2016

नोटबंदी से संपन्न भी उतने ही हतोत्साहित

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नागपुर: बैंकों और एटीएम के आगे की सर्पीली कतारें तब से दुखदायी बन गई हैं, जब से नोटबंदी की घोषणा हुई है (और कहीं यह घोषणा वर्तमान सरकार के लिए ‘ताबूत में आखिरी कील’ न साबित हो जाए, जैसे इंदिरा गाँधी सरकार के लिए इमरजेंसी के बाद ‘नसबंदी’ साबित हुई थी!).

इन कतारों में हमें इस देश का आम आदमी ही दिखाई दे रहा है और आम तौर पर यह माना जा रहा है कि यह कार्रवाई अमीरों के खिलाफ की गई है इसलिए उस तबके पर नोटबंदी का कोई प्रभाव हुआ ही नहीं है. नागपुर टुडे ने अपनी पड़ताल में पाया कि यह धारणा महज एक ग़लतफ़हमी भर है.

ऐसा जान पड़ता है कि आप छोटे कारोबारी हों या कि बड़े उत्पादक सभी सरकार के इस फैसले से प्रभावित हुए हैं. बिक्री घट गई, मांग घट गई और उत्पादन ज्यादातर ठप हैं. मांग और आपूर्ति के सिद्धांत के अलावा उत्पादन ठप होने की दूसरी वजह है कि मजदूर अपने गृह राज्यों को लौट गए हैं, इसलिए नहीं कि उन्हें काम की जरूरत नहीं है या सुविधा संपन्न होने का उन्हें और कोई साधन मिल गया है, बल्कि इसलिए कि यह मनुष्य का स्वाभाव है कि वह खतरा भांपकर तब तक अपनी गुहाओं में छिपा रहना चाहता है जब तक कि खतरा टल न जाए.

इसी तरह अमीर भी कि फिर चाहें वे उद्यमी हों, व्यापारी हों कि डॉक्टर, सभी इस समय पीड़ित हैं. उनकी पीडाएं जरूर आम लोगों से अलग हैं लेकिन उतनी ही सच्ची भी हैं. आय के नुकसान के साथ वे सब हतोत्साहित भी हैं.

वे यकीन ही नहीं कर पा रहे हैं कि जिस प्रधानमंत्री को उन्होंने चुना वह उनके बारे में यह कह रहा है, “जब से मैंने यह कदम उठाया है, गरीब चैन की नींद सो रहा है और अमीर नींद की गोली ढूँढ रहा है.” वे प्रधानमंत्री से यह जानना चाहते हैं कि क्या प्रत्येक अमीर व्यक्ति धोखेबाज़ और चोर है और उसने काला धन छिपा रखा है?

“व्यापार चलाना रोटी खाना नहीं है”
वे कहते हैं कि अच्छे से अच्छे वक़्त में भी भारत में उद्योग चलाना या व्यापार करना आसान काम नहीं है. न ही यहाँ का माहौल व्यापार के लिए अनुकूल है, न ही लाइसेंस राज ख़त्म हुआ है और खर्चे बेहिसाब हैं, उसी तरह से करों का बोझ भी.

बावजूद इसके राष्ट्रनिर्माण, रोजगार निर्माण और देश के लिए संपदा का निर्माण इसी तबके की वजह से संभव होता है.

वे पूछते हैं कि यदि हमारे प्रधानमंत्री इतने ही अमीर विरोधी हैं तो पूरी दुनिया में घूमकर विदेशी निवेश क्यों ढूँढ रहे हैं? भारत में फैक्ट्रियां और व्यापार बढ़ाने के लिए ही न? ‘मेक इन इंडिया’ का स्वप्न क्या है? यदि ऐसी योजनाएं सफल हो जाती हैं तो भारत क्या और अमीर नहीं बनेगा?

भेदभाव किए जाने की तकलीफ आश्चर्यजनक रूप से हर अमीर महसूस कर रहा है.

डॉक्टरों का दुःख : बिना मरीज के अस्पताल
नोटबंदी के बाद से सबसे ज्यादा डॉक्टर समुदाय खफ़ा है. या तो उन्हें मरीजों को बिना उपचार के लौटाना पड़ रहा है या फिर विना फीस लिए ही इलाज करना पड़ रहा है.

“यदि हम अपनी जांच-परामर्श की फीस ४०० उया ५०० रूपए लेते हैं और मरीज हमें दो हज़ार रूपए की नोट थमा रहा है तो आखिर हर मरीज को हम छुट्टे पैसे कहाँ से लौटाएँगे? हम रिज़र्व बैंक तो हैं नहीं कि हमारे पास सौ-सौ के नोट बड़ी संख्या में हों! ऐसे में या तो हम मरीज को देखने से इंकार कर रहे हैं या फिर उनसे बाद में फीस दे जाने के लिए कह रहे हैं, जबकि हम जानते हैं कि एक बार मरीज गया तो शायद ही फीस देने के लिए कभी वापस आएगा. इसलिए फीस तो हम भूल ही जा रहे हैं, बावजूद इसके मरीज जांच-परामर्श के लिए नहीं आ रहे हैं!”, यह तकलीफ बयान करते हुए शहर के मशहूर बालरोग विशेषज्ञ डॉक्टर देशपांडे (बदला हुआ नाम) की आँखें नाम हैं.

फिर आप चेक या क्रेडिट कार्ड से फीस क्यों नहीं लेते? सवाल पूछा गया तो डॉक्टर ने प्रतिप्रश्न किया कि ऐसे कितने ग्रामीण या सामान्य नागरिक हैं कि जिनके पास चेक या क्रेडिट कार्ड हैं?

क्रेडिट-डेबिट कार्ड के इस्तेमाल के नुकसान
एक होटल व्यवसायी पिछले एक साल से क्रेडिट-डेबिट कार्ड के जरिए पेमेंट लेने लगे हैं, उनका अनुभव है कि “इस माध्यम से भुगतान लेने-देने में बहुत सी समस्याएँ हैं. जब व्यवसाय अपने चरम पर होता है यानी शाम ६ से रात ९ बजे के बीच तो उस समय कार्ड से भुगतान करते समय अक्सर सिस्टम का भट्ठा बैठ जाता है, क्योंकि हमारे यहाँ की इंटरनेट व्यवस्था अभी भी एक साथ बोझ उठाने के काबिल नहीं हुई है. भुगतान लेने-देने में वक़्त लगता है तो हमारा काम प्रभावित होता है, ग्राहक का वक़्त जाया होता है. ग्राहक से जब नगद भुगतान के लिए कहा जाता है तो वे नाराज हो जाते हैं, उन्हें लगता है कि कारोबारी ऐसा जानबूझकर कर रहा है और इसका नतीजा यह हो रहा है कि दशकों की मेहनत से जो साख हमने बनायी है, वह मिनटों में क्रेडिट-डेबिट कार्ड की वजह से नष्ट हो रही है.

वीसा / मास्टरकार्ड की बपौती क्यों?
एक व्यापारी ने बातचीत में पूछा कि “आखिर क्रेडिट-डेबिट कार्ड पर वीसा और मास्टरकार्ड जैसी कंपनियों की बपौती क्यों है? जबकि दोनों अमेरिकी कंपनी हैं, जब भी क्रेडिट या डेबिट कार्ड से भुगतान होगा, पहले हमें वीसा या मास्टरकार्ड के वेबपोर्टल पर जाना होगा और इस तरह के प्रत्येक भुगतान के लिए हमें उन्हें डेढ़ प्रतिशत हस्तांतरण चार्ज देना होता है. तो क्या भारत को इसलिए कैशलेस बनाया जा रहा है कि ये अमेरिकी कम्पनियाँ और अमीर हो जाएं?”

एक उद्यमी जो हर महीने पेट्रोलियम डीलरों को लाखों रूपए का भुगतान करते हैं, सरकार से जानना चाहते हैं कि “जब पेट्रोल पंप पर कार्ड से भुगतान किया जाता है तो ०.७५% की बोनस छूट दी जाती है, यही छूट चेक पर क्यों नहीं दी जाती कि जिसके जरिए हर महीने लाखों का भुगतान किया जाता है? चेक भी तो आखिर कैशलेस व्यवस्था है न?”

एक कारोबारी ने कहा, “हर हस्तांतरण पर हमसे दो प्रतिशत चार्ज लिया जाता है, हमारा कारोबार बहुत थोड़े से मुनाफे की दर पर चलता है, ऐसे में यह अतिरक्त बोझ हम कैसे उठाएं?”

कारोबारी, व्यापारी, व्यवसायी सभी दुख, क्रोध और क्षोभ से भरे हुए हैं, उनके पास सवाल ही सवाल हैं.
वे कहते हैं कि पिछले ढाई साल से हम सुन रहे थे कि व्यापार के अनुकूल माहौल बनाया जाएगा और अचानक यह कदम उठाकर सरकार ने हमारे काम में इतनी गहरी खाई बना दी है कि उसको भरने में ही हमें कई साल लग जाएंगे!

इन सभी की सबसे बड़ी पीड़ा है शिकायत करें भी तो किससे? मन की कहें भी तो किससे?

शिकायत करने का मतलब आप बेईमान हैं!
८ नवम्बर के बाद अपनी पीड़ाओं की शिकायत करने वाले को बेईमान कारोबारी या व्यापारी और कला धन बनाने वाला कहा जा रहा है और जो भी शिकायत कर रहा है, उस पर आयकर के छापे और दूसरे तरह के उत्पात आजमाए जा रहे हैं. यहाँ तक कि नोटबंदी की शिकायत करने वाले को राष्ट्रद्रोही तक कहा जा रहा है.

नोटबंदी की वजह से आप कितनी भी असल तकलीफें झेल रहे हों और अपनी तकलीफों के बारे में यदि आपने शिकायत करने की कोशिश की तो सरकारी तंत्र आप पर राष्ट्रद्रोही की मुहर लगाने के लिए तैयार बैठा है. ऐसा मत सोचिए कि राष्ट्रद्रोही की मुहर सिर्फ देश में विपक्ष की भूमिका निभा रहे राजनीतिक दलों के लिए हैं या फिर उस मीडिया के लिए है जो जनहित की बात करेंगे, बल्कि उन सभी के लिए है जो शिकायत करेगा, फिर वह चाहे आम हो या खास!

चार्टेड एकाउंटेंट्स का जो अखिल भारतीय संगठन है उसके अध्यक्ष को खास तौर पर निर्देश देकर कहा गया है कि यदि नोटबंदी की वजह से किसी भी सी.ए. को लगता है कि उनके ग्राहकों को भारी नुकसान हुआ तो वे इसे सार्वजानिक तौर पर कभी जाहिर नहीं करेंगे. अध्यक्ष द्वारा तमाम सी.ए. को भेजे गए मशविरे मसौदे में लिखा है, “हम राष्ट्र-निर्माण में भागीदार हैं, हमें सरकार को सहयोग करना ही होगा.”

कुल मिलाकर हर भारतीय को नोटबंदी की पीड़ा को झेलना है और चुपचाप झेलना है क्योंकि आप सब बुरी तरह से बीमार हैं और उपचार तो दर्दनाक होगा ही!

“तो क्या देश के वित्त मंत्री यह कहना चाहते हैं कि पूरा भारत कैंसर से पीड़ित है?” उत्तरप्रदेश के ऑटोपार्ट्स निर्माता यह सवाल पूछते हैं.

लेकिन आम लोगों का तो सवाल यही है, “कैंसर फ़ैल कहाँ से रहा है? इसकी जड़ कहाँ है?”

सुनीता मुदलियार, सहायक संपादक