नागपुर : नागपुर जिले में नगर परिषद और नगर पंचायत चुनावों में करारी हार के बाद कांग्रेस अब नागपुर महानगरपालिका (NMC) की जंग में बिखरी और घायल नजर आ रही है। 15 जनवरी को होने वाले मनपा चुनाव के लिए नामांकन पत्र वितरण की अंतिम तारीख 30 दिसंबर है, लेकिन पार्टी अब तक अपने उम्मीदवार तय नहीं कर पाई है। संगठन की ताकत दिखाने के बजाय कांग्रेस के अंदरूनी झगड़े खुलेआम सामने आ गए हैं।
देवाडिया भवन में हुई टिकट इंटरव्यू प्रक्रिया के दौरान पूर्व पार्षद मनोज सांगोले, पुरुषोत्तम हजारे और कमलेश चौधरी को अंदर प्रवेश नहीं दिया गया। इसे अंतिम सूची से बाहर किए जाने का साफ संकेत माना जा रहा है। इस फैसले से जमीनी कार्यकर्ताओं में नाराजगी फैल गई है और शीर्ष नेतृत्व तथा वार्ड स्तर के कार्यकर्ताओं के बीच की खाई और गहरी हो गई है।
उत्तर नागपुर में मजबूत पकड़ रखने वाले और पांच बार पार्षद रह चुके मनोज सांगोले दो से तीन पार्षदों का समर्थन जुटाने की क्षमता रखते हैं। इसके बावजूद उन्हें किनारे किया जा रहा है। इससे पहले वे कांग्रेस विधायक नितिन राउत के खिलाफ बसपा उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ चुके हैं और बाद में कांग्रेस में लौटे थे, लेकिन अब एक बार फिर उन्हें दूरी पर रखा जा रहा है। पार्टी सूत्रों के अनुसार, सांगोले को कांग्रेस से कोई भरोसा नहीं मिला है और बसपा भी उन्हें अपनाने के मूड में नहीं है। हालांकि, वे कांग्रेस के वोट बैंक को नुकसान पहुंचाने की ताकत रखते हैं।
पश्चिम नागपुर के तीन बार पार्षद रहे कमलेश चौधरी को शहर कांग्रेस अध्यक्ष विकास ठाकरे के खिलाफ निर्दलीय उम्मीदवार नरेंद्र जिचकर का समर्थन करने की सजा मिली है। अब उनके भाजपा नेताओं के संपर्क में होने की चर्चा है और यदि अनदेखी हुई तो वे निर्दलीय चुनाव लड़ने को तैयार हैं। वहीं, बार-बार “पार्टी विरोधी गतिविधियों” के आरोप झेल चुके पुरुषोत्तम हजारे के पास भी कुछ इलाकों में वफादार मतदाता हैं। ये तीनों भले ही जीत न पाएं, लेकिन कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने की पूरी क्षमता रखते हैं।
बगावत यहीं नहीं रुकी है। पूर्व नेता प्रतिपक्ष तानाजी वानवे पहले ही अजित पवार गुट की राष्ट्रवादी कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं, जबकि दर्शनी धावड़ भाजपा का दामन थाम चुकी हैं। अतीत में रमेश पुनेकर जैसे नेताओं ने भी अधिकृत उम्मीदवारों के खिलाफ चुनाव लड़ा है, और 2017 में निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में आभा पांडे की जीत आज भी पार्टी के लिए चेतावनी बनी हुई है कि मतदाताओं पर पूरा नियंत्रण हमेशा संगठन के हाथ में नहीं रहता।
पिछली आम सभा में कांग्रेस के 29, भाजपा के 108, बसपा के 10, शिवसेना के 2, राष्ट्रवादी कांग्रेस के 1 और अन्य के 1 पार्षद थे। भाजपा सत्ता बनाए रखने के लिए आक्रामक रणनीति पर काम कर रही है, जबकि कांग्रेस नेतृत्व अब तक यह तय नहीं कर पाया है कि मजबूत बागियों को मनाया जाए या उन्हें बाहर जाने दिया जाए। हर गुजरते दिन के साथ पार्टी के भीतर की दरार और चौड़ी होती जा रही है।
यदि प्रमुख वार्डों में निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या बढ़ी, तो भाजपा का रास्ता आसान हो सकता है और कांग्रेस खुद ही अपनी हार की पटकथा लिख देगी। 16 जनवरी को घोषित होने वाले नतीजों से पहले अगर पार्टी ने तेजी से फैसले नहीं लिए, गुटबाजी पर काबू नहीं पाया और अनुशासन बहाल नहीं किया, तो यह चुनाव कड़ी टक्कर के लिए नहीं, बल्कि कांग्रेस द्वारा भ्रम और देरी के चलते खुद ही राजनीतिक जमीन छोड़ने के उदाहरण के रूप में याद किया जाएगा।








