Published On : Sat, Mar 11th, 2017

38 सालों से निशुल्क उर्दू पढ़ा रहे हैं मोहम्मद क़मर हयात

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नागपुर:
विदर्भ साहित्य संघ की इमारत में पिछले 38 वर्षों से उर्दू भाषा को पूरी ईमानदारी से सभी वर्गो के लोगों को सिखाने का बीड़ा उठाने का कार्य मोहम्मद क़मर हयात कर रहे हैं और वह भी निशुल्क। इनकी उम्र 71 वर्ष है। उम्र के कारण आंखों में कैटरेक्ट होने से परेशानी होती है। बावजूद इसके वे रोजाना शाम के समय 6 बजे अपने विद्यार्थियों को उर्दू सिखाने पहुँच जाते हैं। बिना किसी शुल्क के और बिना किसी स्वार्थ के वे अब तक करीब 1200 से ज्यादा लोगों को उर्दू सिखा चुके हैं। उनकी उर्दू की क्लास में 20 साल के युवा से लेकर 65 साल के बुजुर्ग भी उर्दू सीखते हुए दिखाई देंगे। कमर हयात ने 1971 में पुणे से डी.एड पूर्ण किया था। उसके बाद वे 1972 में इतवारी की हुसामियाह उर्दू स्कूल में शिक्षक के पद पर कार्यरत हुए। जिसके बाद 2003 में वे रिटायर हुए।

दूसरे राज्यों में उर्दू का विकास देख लिया सिखाने का निर्णय
अपने उर्दू की क्लास के सफर के बारे में जब उनसे बात की गई तो उन्होंने बताया कि उर्दू का जन्म भारत के दक्कन में हुआ। और यहां से यह भाषा दूसरी जगह पहुंची। उत्तर प्रदेश, बिहार में दूसरे मजहब के शायरों ने कवियों ने उर्दू में कविताएं और शायरी लिखी है। जिसे देखते हुए उन्हें लगा कि शहर में भी लोगों को उर्दू सिखाई जाए और इस सोच के साथ उनका सफर जो तय हुआ तो आज तक जारी है। उन्होंने बताया कि महाराष्ट्र के पूर्व मंत्री अनिल देशमुख भी उनसे उर्दू सीखकर गए हैं। साथ ही इसके 85 साल की उम्र में के.डी.महागावकर भी उनसे 1981 में उनसे उर्दू सीखने आये थे।

अपनी अपनी सोच लेकर आते हैं उर्दू सीखने
कमर हयात ने बताया कि उर्दू सीखने के लिए लोगों के अपने-अपने तर्क हैं। कई लोग उर्दू को पसंद करते हैं। इसलिए सीखने आते हैं। कई लोग फ़िल्में देखकर मन में उर्दू सीखने की ख्वाहिश लेकर आते हैं तो कई ऐसे भी होते हैं जो शेरो शायरी करने के लिए उर्दू सीखने पहुँचते हैं। उन्होंने बताया कि उर्दू ज़बान में मिठास है, नरमी है और तहजीब है। दिलों को मिलानेवाली उर्दू ज़बान है। इसलिए भी लोग इसे सीखने के लिए पहुँचते हैं।

परिजनों ने बढ़ाया हौसला
कमर हयात की पत्नी सुल्ताना कमर हयात सरकारी नौकरी में थी। वह अब रिटायर हो चुकी हैं। उनके दो बेटे हैं। एक बेटे मोहम्मद अतहर ने लंदन से एम.एस किया है और दूसरा बेटा मोहम्मद अशहर सरकारी नौकरी में है। उन्होंने भी अपने पिता के इस सराहनीय को रोका नहीं बल्कि उनका हौसला बढ़ाया।

शुरु में थे 180 विद्यार्थी
अपने उर्दू सिखाने के शुरुवाती सफ़र के बारे में उन्होंने बताया कि 1979 मे पहली ही बैच में उनके पास 180 विद्यार्थी आये थे। तब से लेकर अब तक 27 से 28 रजिस्टर भर चुके हैं। विद्यार्थियों के नाम से भरे पड़े सभी रजिस्टर 1979 से लेकर अब तक उन्होंने सम्भालकर रखे हैं।


3 महीने में सीख सकते हैं उर्दू पढ़ना-लिखना
3 महीने में उर्दू लिखना और पढ़ना क़मर हयात सिखाते हैं। लेकिन शर्त यह है कि 3 महीने तक बिना छुट्टियाँ मारे रोजाना आना होगा। अभी वे जाफ़र नगर से रोजाना सीताबर्डी पढ़ाने आते है। शुरुवात मे वे मोमिनपुरा में रह्ते थे तो 50 पैसे देकर बस से आते थे। अनेक कठिनाइयों के बाद भी उन्होंने अपने विद्यार्थियों को पढ़ाना नहीं छोड़ा। जो पढ़ाने का जज़्बा उनका 38 साल पहले था वह आज भी कायम है।

उर्दू के प्रति सरकार गंभीर नहीं होने से जताई नाराजगी
कमर हयात ने बताया कि सरकार कि और से उर्दू अकादमी बनाई गई है। लेकिन अकादमी की ओर से उर्दू के विकास के लिए कोई भी प्रयास नहीं किये जा रहे। उन्होंने बताया कि महाराष्ट्र सरकार ने भी उर्दू अकादमी बनाई है। लेकिन उस अकादमी में नागपुर के एक भी उर्दू के जानकार को शामिल नहीं किया गया।


अपने योगदान की उपेक्षा किए जाने से आहत
अपने योगदान और उनके प्रति प्रशासन की बेरुखी को भी क़मर हयात ने बयां किया। उन्होंने बताया कि वे 38 साल से उर्दू को जन-जन तक पहुंचाने का कार्य कर रहे हैं। छोटे विधार्थियों से लेकर बड़े-बड़े लोग उनसे उर्दू सीखकर गए हैं। लेकिन राज्य सरकार को और प्रशासन को इस बारे में जानकारी नहीं है। उन्होंने कहा कि राज्य सरकार ने उन्हें वह सम्मान नहीं दिया जिसके वे हकदार थे।


—शमानंद तायडे