मध्यभारत क्षेत्र में महिलाओं द्वारा हाल ही घटित जघन्य अपराध की कुछ घटनाओं ने भारतीय समाज के कान खड़े कर दिए हैं. एक माह पहले ही नागपुर में एक बेटी ने संपत्ति के लिए अपने पति के साथ मिलकर पिता का कत्ल कर दिया और बड़े-से सूटकेस में भरकर उस लाश को आधी रात को ठिकाने लगाने ले जाते हुए दोनों पकड़े गए थे. इसी सप्ताह उच्च शिक्षित परिवार की मां-बेटी ने अपनी अय्याशी में आड़े आ रहे प्राचार्य (पति-पिता) की 5 लाख रुपए देकर ‘सुपारी हत्या’ करवा दी. वहीं भोपाल में दो बहनों ने संपत्ति विवाद में अपने ही भाई का कत्ल करवा दिया और कल ही चंद्रपुर में एक दादी ने अपनी नवजात पोती को सिर्फ इसीलिए मार डाला, क्योंकि वंश चलाने के लिए उस परिवार को बेटा चाहिए था! जरा सोचिए कि किस ओर जा रही है अब महिलाओं की कुबुद्धि…?
आमतौर पर पुरुषों की तुलना में महिलाएं कम अपराध करती हैं, किंतु जितने भी अपराध वे करती हैं, उसकी क्रूरता पुरुषों से कम भी नहीं होती! कुछ वर्ष पहले ही इंद्राणी मुखर्जी नामक एक हाई सोसाइटी लेडी ने अपने पूर्व पति के साथ मिलकर अपनी सगी बेटी का कत्ल कर लाश जंगल में फिकवा दी थी. इससे भी जाहिर होता है कि महिलाओं की मानसिकता किस कदर गिरती जा रही है! वैसे समाज में महिलाओं के प्रति अक्सर सहानुभूति ही देखी जाती है. उन्हें सहनशील, दया-ममता-करुणा की मूर्ति माना जाता है. उनके खिलाफ होने वाले हर अत्याचार, बलात्कार अथवा सभी प्रकार की प्रताड़नाओं पर समूचा देश एकजुट होकर उनके समर्थन में आवाज उठाने लगता है. आरुषि हत्याकांड और निर्भया गैंगरेप कांड इसके जीवंत उदाहरण हैं, लेकिन कोई महिला या मां-बेटी अगर पिता, पति या भाई के खिलाफ जघन्य अपराध करे, तो यही समाज चुप्पी की चादर ओढ़ लेता है! कहीं कोई मौन जुलूस या कैंडल मार्च नहीं निकलता! कोई विरोध प्रदर्शन नहीं होता! कोई इन्हें फांसी देने या सूली पर लटकाने की मांग नहीं करता!
आखिर समाज में पीड़ित या प्रताड़ित पुरुष के प्रति दूजा भाव क्यों है? नागपुर में घटित प्राचार्य वानखेड़े हत्याकांड में भी यही सब हो रहा है. समाज के सभी वर्ग शांत हैं, खामोश हैं. हालांकि कानून अपना काम कर रहा है, जो कि महिलाओं के साथ घटित अपराध के दौरान भी करता रहता है. मगर तब समाज ज्यादा आक्रोशित और उद्वेलित हो जाता है. मंत्री-संत्री से लेकर शासन-प्रशासन सब जाग जाते हैं. महिला आयोग और इन जैसे तमाम संगठन भी सक्रिय होकर पीड़ित महिला के पक्ष में खड़े हो जाते हैं. इस पर हमें कोई आपत्ति भी नहीं है, मगर ‘क्रूरकर्मी व नरभक्षी महिलाओं’ द्वारा किए गए ‘जघन्य पाप’ के खिलाफ मानवाधिकार आयोग या संबंधित संगठनों को साफ क्यों सूंघ जाता है?
पुलिस और प्रशासन में भी सिर्फ महिलाओं की ही सुनी जाती है. पुरुषों को ही हर प्रकरण में दोषी समझ लिया जाता है. अगर राह चलती किसी लड़की की गाड़ी किसी युवक या पुरुष की गाड़ी से टकरा गई, तब लड़की की गलती होने के बावजूद लोग पुरुष या युवक को ही दोष देते हैं. कई बार ऐसे निर्दोषों की पिटाई भी हो जाती है! सवाल यह है कि अगर प्रताड़ित महिलाओं के सहयोग और समर्थन के लिए जिस प्रकार तमाम संगठन और महिला आयोग तथा हमारा समाज आदि सामने आते हैं, वैसा ही प्रताड़ित पुरुषों के मामले में क्यों नहीं होता? पुरुषप्रधान समाज में हर नारी को सम्मान और बराबरी का दर्जा एवं हक मिलना ही चाहिए, लेकिन ‘आदमखोर नारियों’ के खिलाफ भी समाज ने आवाज उठाना चाहिए. अगर ‘सभ्य समाज’ और भारतीय संस्कृति को बचाना हो… तो समय रहते महिलाओं की क्रूरता के खिलाफ भी आवाज उठाई जानी चाहिए. इसी में समाज की भलाई है.
