खैर!जो होना था, वह हो गया।अब जबकि जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल का शासन लागू हो गया है, कोई राजदल जम्मू- कश्मीर पर राजनीति ना करें।अपने सरताज कश्मीर पर हम कोई जोखिम नहीं उठा सकते।आज कश्मीर के हालात असामान्य हैं।विभाजन के वक़्त से ही पाकिस्तान की नापाक नज़रें कश्मीर पर लगी हैं।हमारी एक रणनीतिक भूल के कारण तब संयुक्त राष्ट्र (संघ) ने कश्मीरियों के लिए आत्मनिर्णय का प्रस्ताव पारित कर दिया था।
पाकिस्तान और अलगाववादी उसी प्रस्ताव का राग अलापते रहते हैं।जम्मू-कश्मीर की आरंभिक सरकारों और केंद्र सरकार ने पहले कश्मीरियों का विश्वास जितने और वहां शांति कायम रखने की नीतियां बनाईं।परिणाम सामने आए।शनैःशनैः स्थितियां बदलीं और 90से95 प्रतिशत कश्मीरी मानस भारत के पक्ष में परिवर्तित हो गया।बीच-बीच में थोड़ा उथल-पुथल होता रहा, लेकिन फिर भी स्थितियां भारत के अनुकूल ही रहीं।इसके लिए अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार सहित केंद्र की अन्य पिछली-बाद की सरकारों की सराहना करनी होगी।
लेकिन, दुःखद रूप से2014 में केंद्र में भाजपा नेतृत्व की सरकार बनने के बाद प्रदेश, विशेषकर घाटी के हालात बिगड़ने लगे।न केवल आतंकी घुसपैठ-हमलों में वृद्धि हुई,कश्मीरियों के बीच अविश्वास और असुरक्षा के भाव पैदा हुए।भाजपा की कथित कट्टरवादी हिंदुत्व-छवि इसके लिए मुख्य कारण बना।पाकिस्तान ने इसका भरपूर लाभ उठाते हुए घाटी में युवाओं को गुमराह कर अलगाव वाद को नई हवा दी।प्रशिक्षित आतंकवादी दस्तों की घाटी में घुसपैठ करा हिंसा का खूनी खेल शुरू कर दिया।घाटी में युवाओं के बीच भ्रम फैलाने में 2015 में प्रदेश में पीडीपी के साथ गठबंधन सरकार में भाजपा का शामिल होना भी मददगार बना।अनेक दुष्प्रचार का सहारा ले पाक परस्त अलगाववादियों ने भारत और इसकी सेना के विरुद्ध एक खतरनाक माहौल तैयार कर डाला।यहां तक कि छोटे-छोटे स्कूली बच्चे भी अलगाव समर्थक बनते गये।
अनेक बहु-तकनीकी शिक्षित युवाओं ने आतंकवादियों के साथ हथियार उठा लिए।यह है वर्तमान जम्मू-कश्मीर का भयावह सच।और भी भयानक कि भारत समर्थक 90-95 प्रतिशत का आंकड़ा भी पलट चुका है।कश्मीर के हालात बद से बदतर होते चले जा रहे हैं।इन कड़वे सच को स्वीकार कर ही घाटी में शांति बहाली और भारत के पक्ष में कश्मीरी-विश्वास को पुनः जीता जा सकता है।
महबूबा मुफ्ती अनेक बातों में गलत हो सकती हैं, लेकिन यहाँ वे सही हैं कि सख्ती समस्या का समाधान नहीं है।कश्मीर की समस्या राजनीतिक है, समाधान भी राजनीतिक हो।हाँ, आतंकी हिंसा का जवाब अवश्य गोलियों से ही देना होगा-बेरहमी से।लेकिन,ऐसी कार्रवाई में कोई राजनीति न हो।कश्मीरियों का विश्वास जितने के लिए नई-नई कल्याणकारी योजनाएं बनानी होंगी।उनका ईमानदार क्रियान्वयन करना होगा।और हाँ, इसमें निर्णायक भूमिका स्थानीय लोग ही निभा सकते हैं,कोई आयातित नेतृत्व नहीं!