Published On : Sat, Jul 30th, 2016

अर्णब गोस्वामी – आपसे मुझे डर नहीं लगता, लेकिन भारत के लिए आप चिंता का विषय बन सकते हैं…

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barkha-arnab-759इसके लिए क्या कुछ नहीं कहा गया – मीडिया का झगड़ा, कहासुनी, कलह, दो हस्तियों के बीच तनातनी, बहुत कुछ, लेकिन असल में यह आज़ादी की लड़ाई है, उस धौंस जमाने वाले शख्स की धमकियों और उसके पत्रकारिता के शर्मनाक विनाश के दावे को नकारने की लड़ाई है.

इस हफ्ते, मैंने एक फेसबुक पोस्ट लिखी थी जिसमें मैंने कहा था कि मुझे शर्म आती है कि मैं उसी पेशे से जुड़ी हूं, जिससे पूर्व एनडीटीवी सहयोगी और अब प्रतिद्वंद्वी चैनल टाइम्स नाउ के एडिटर अर्णब गोस्वामी जुड़े हैं. कई हज़ार लोगों ने मेरी लिखी पोस्ट को पढ़ा और उस पर बहस भी की. कुछ ने आश्चर्य जताया कि आखिर मेरी तरफ से इस तरह की प्रतिक्रिया क्यों आई, मीडिया की बिरादरी के कई लोगों ने आगे बढ़कर सच को सच कहने की हिम्मत दिखाई, वहीं कुछ ऐसे भी थे, जिन्होंने चुप्पी साधे रखना बेहतर समझा. लेकिन सबसे खराब प्रतिक्रिया तो उनकी थी जिन्होंने इसे आपसी रंजिश बताते हुए किसी का ‘पक्ष’ नहीं लेने की बात कही. पक्ष लेना? यह कोई तलाक का मामला नहीं है जहां आपके दोस्त, दोनों में से किसी का भी पक्ष लेने से बचते हैं ताकि किसी से भी रिश्ते खराब न हों.

यह मामला तो स्वतंत्र और ईमानदार रिपोर्टिंग के हमारे मूलभूत अधिकार का है, जहां कोई भी हमें बिना किसी आधार के आतंक समर्थक या भारतीय सेना का दुश्मन करार न कर सके. दरअसल यह भारतीय मीडिया इतिहास के उस अभूतपूर्व पल के बारे में है जब एक बड़े पत्रकार ने सरकार से कहा कि कश्मीर पर की जाने वाली बहुआयामी और बारीकी से की गई पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों की ‘ख़बर’ ली जाए.

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हां आपने सही सुना. ‘मैं कहता हूं, उनकी खबर ली जाए’ न्यूज़ आवर कार्यक्रम में अपने चिरपरिचित अंदाज़ में गोस्वामीजी ने गरजते हुए यही कहा था. खुद को नैतिक तौर पर श्रेष्ठ समझने वाले गोस्वामीजी ने कहा, ‘उनको जवाब-तलब नहीं किए जाने से मेरे देश के साथ समझौता होगा और अगर उनमें से कुछ लोग मीडिया से ताल्लुक रखते हैं तो मुझे परवाह नहीं है. उनका भी ट्रायल किया जाए.’ उनकी इस बात के लिए सिर्फ दो ही शब्द हैं – नेतागिरी और मैककार्थिज्‍म.

यह इसलिए भी दुखद है, क्योंकि यह तो दरअसल सत्तावादी नेताओं के लक्षण होते हैं और मीडिया का काम इसे चुनौती देने का होता है. मुझे कोई एक उदाहरण याद नहीं आ रहा जहां संपादक द्वारा सरकार से मीडिया के चंद हिस्सों को बंद करने और उससे जुड़े लोगों के साथ खतरनाक अपराधियों की तरह बर्ताव करने के लिए कहा गया हो. इसलिए वे लोग जो पक्ष लेने से बच रहे हैं, मैं उनसे पूछना चाहती हूं कि – प्रेस की आज़ादी पर लगाम कसने के इस मामले का दूसरा पक्ष आखिर है क्या? इस बार आपकी चुप्पी का मतलब है आप भी इस अपराध में शामिल हैं.

‘पाकिस्तान के शांतिदूत’ टाइटल वाले इस कार्यक्रम में गोस्वामी ने न सिर्फ पत्रकारों पर सेंसरशिप और आपराधिक मामले दर्ज करने की बात कही, बल्कि उन्होंने झूठ और पाखंड का भी प्रदर्शन किया. उनकी कही गलत बातें मसलन – उन्होंने हम सबको, जिन्होंने कश्मीर के मौजूदा हालातों की रिपोर्टिंग की (वहां जाकर की, न कि उनकी तरह मुंबई स्टूडियो के आरामदायक मौहाल में बैठकर), आतंकी बुरहान वानी का समर्थक बताया, बगैर यह समझाए कि इसका आधार क्या है. इसी तरह उन्होंने हमें कुछ इस तरह दिखाया मानो हम सेना के खिलाफ कोई जंग लड़ रहे हैं – जो झूठी और खोखली बात है.

तो बात ऐसी है कि कश्मीर की सड़कों पर हुई हिंसा (मात्र एक घटना को छोड़कर) प्रदर्शनकारियों और पुलिस तथा पैरामिलेट्री फोर्स के बीच की टक्कर है, जिसमें सेना शामिल नहीं है, तो फिर इस बहस में सेना को बीच में घसीटने का क्या मतलब है? दूसरी बात, सच को उसके हर पहलू के साथ दिखाना एक पत्रकार का कर्तव्य है – जिसमें एक कहानी के हर पक्ष को सामने लाया जाता है, उन पहलुओं पर बात की जाती है, न कि उन पर मुलम्मा चढ़ाया जाता है जिसके सामने लाने से स्थिति असहज या अजीब हो जाती है. यह तो कायरता हुई, रिपोर्टिंग नहीं.

तो हां, मैं उन पत्रकारों में से एक हूं, जिन्होंने घाटी में पनप रहे आतंकवाद के इस नए चरण को विस्तार से बताया – स्कूलों में बाज़ी मारने वाले पढ़े-लिखे युवा जो इस तादाद में बंदूक उठा रहे हैं, उनकी संख्या पिछले साल के विदेशी आतंकियों को पीछे छोड़ रही है. मैंने कर्फ्यू लगे श्रीनगर के अस्पतालों से रिपोर्टिंग की, जहां पैलेट गन के शिकार हुए करीब 100 युवा कश्मीरी आंशिक रूप से या हमेशा के लिए अंधे हो गए हैं. इनमें से कई तो 18 साल के भी नहीं हैं. मैंने कई सांसदों की तरह, जिसमें पूर्व गृहमंत्री पी चिदंबरम भी शामिल हैं – यह भी कहा कि इतनी तादाद में लोगों की आंखों की रोशनी का जाना भारत की नैतिकता पर सवाल खड़े करता है. और गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भी कबूला कि सुरक्षाबलों को भीड़ पर काबू पाने के लिए कुछ और तरीके अपनाने होंगे, साथ ही उन्होंने विकल्प खोजने के लिए समिति भी गठित कर दी है.

सिर्फ यही नहीं, मैंने शहर के आर्मी बेस अस्पताल से भी रिपोर्टिंग की, जहां घायल सीआरपीएफ और पुलिस के जवानों ने बताया कि किस तरह लगातार बढ़ रही गुस्साई भीड़ के नए-नए पैंतरों का सामना करने में उन्हें दिक्कतें पेश आ रही हैं, फिर वह कैंप पर पत्थरबाज़ी हो, हथियार छीनना हो, महिलाओं को ढाल की तरह इस्तेमाल करना हो, या फिर कुछ जगहों पर पूरे के पूरे पुलिस स्टेशन और सेब के बाग़ान को आग के हवाले कर देना हो. बल्कि यह कहना गलत नहीं होगा कि कश्मीर को कवर करने के दौरान सबसे ज्यादा संवेदनशील बयान घाटी में तैनात जवानों की ओर से आए हैं – पूर्व सेना प्रमुख जनरल मलिक ने कहा कि इस मुद्दे को सामाजिक-राजानीतिक नज़रिए से देखना होगा जिसका कोई सैन्यवादी समाधान नहीं है. घाटी के पूर्व कमांडर जनरल अता हसनैन ने कहा कि कश्मीर की गुस्साई और हां…उग्र नई पीढ़ी से और अधिक संवाद की जरूरत है. सेना के मौजूदा कमांडर जनरल सतीश दुआ ने मुझसे एक इंटरव्यू के दौरान कहा, ‘यह देखकर मेरा दिल डूब जाता है कि महज़ दो-तीन महीने पहले कट्टरपंथ में शामिल हुए लड़के मुठभेड़ में मारे जाते हैं. यह हमारे लड़के हैं.’ और श्रीनगर के बेस अस्पताल में भर्ती एक घायल सीआरपीएफ जवान का बयान गौर फरमाने लायक था, ‘हम उन्हें शूट नहीं कर सकते, आखिर वे हमारे लोग हैं.’

लेकिन अगर गोस्वामीजी की रात में लगने वाली अदालत की मानी जाए, तो यह तीनों जवान तो पाकिस्तान समर्थक होंगे. यही नहीं, ये ‘राष्ट्रविरोधी’ भी होंगे – हां कायरता से लैस यह एक नया हथियार है जो हर तरह के पूर्वाग्रह, भड़काऊ बयान और कट्टरवाद को ढांकने का काम करता है.

बेशक पाकिस्तान कश्मीर में आग लगाने का काम कर रहा है, लेकिन यह तो कहानी का सिर्फ एक ही पहलू है. जहां 40 से ज्यादा नागरिक मारे गए हैं, ऐसे में हमें खुद से भी सवाल करने होंगे कि कहां है हमारी कल्पना, हमारी संवेदनशलीता, राजनीतिक संवाद और मामले की गंभीरता को समझने का हमारा नज़रिया? क्या बुरहान वानी की मौत के बाद उमड़ी जनता के गुस्से के पीछे का सच सामने लाना बतौर रिपोर्टर हमारा फर्ज़ नहीं है? जब एक टीवी एंकर, अपने साथियों को बदनाम करने के लिए झूठी कहानियां बुनने लगता है तो वह पत्रकारिता नहीं है – वह देशभक्ति भी नहीं है – यह सीधे तौर पर बौद्धिक बेईमानी है.

अब आते हैं पाखंड पर. गोस्वामीजी ने अपने कार्यक्रम में जो नहीं कहा वह भी ध्यान देने योग्य है. टाइम्स नाउ द्वारा देशभक्ति के लिए तय किए गए नियमों के तहत पाकिस्तान के खिलाफ गुस्से में आगबबूला नहीं होना अगर देशद्रोह है, तो फिर जम्मू-कश्मीर में बीजेपी-पीडीपी गठबंधन और उससे जुड़े विरोधाभास को कार्यक्रम में जगह क्यों नहीं दी गई? बीजेपी के राम माधव और पीडीपी के हसीब द्रबू द्वारा तैयार किए गए गठबंधन के करारनामे में सभी पक्षों के साथ संवाद की बात कही गई है, जिसमें अलगाववादी हुर्रियत कॉन्फ्रेंस भी शामिल है. विडंबना यह है कि हालिया तनाव के दौरान राज्य सरकार ने आज़ादी की मांग करने वाले अलगाववादियों को घाटी में शांति की अपील करने के लिए बुलवा भेजा. इस अनुबंध में धारा 370 की यथास्थिति पर सहमति है और यह पाकिस्तान से लगातार बातचीत के लिए प्रतिबद्धता की बात भी करता है. निजी तौर पर मुझे इनमें से किसी पर भी आपत्ति नहीं है.

लेकिन हम जानते हैं कि गोस्वामीजी को इससे आपत्ति है, तो फिर वह इन विरोधाभासों की गहराई में क्यों नहीं गए?

इस लिहाज़ से तो प्रधानमंत्री मोदी पाकिस्तान के लिए ‘शांतिदूत’ से कहीं ज्यादा हैं – याद कीजिए काठमांडू में उनकी नवाज़ शरीफ से गुप्त बातचीत, फिर क्रिसमस पर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को जन्मदिन की बधाई देने के लिए बिन बताए पाकिस्तान पहुंच जाना. मैं तो उनके इस कदम को राजनीतिक कुशलता मानूंगी. लेकिन क्योंकि यहां टाइम्स नाउ के एडिटर के विचारों की बात हो रही है, तो फिर उन्होंने उस वक्त प्रधानमंत्री की आलोचना क्यों नहीं की? जब मैं यह लिख रही हूं, उस वक्त एक जिंदा पाकिस्तानी आतंकवादी के कबूलनामे का वीडियो हमारे पास है, लश्कर संगठन का हाफिज़ सईद खुलेआम बुरहान वानी को अपना बता रहा है और कह रहा है कि उसके कुछ आदमियों ने कश्मीर में विरोध-प्रदर्शन की अगुवाई की है, लेकिन इन सबके बीच गृहमंत्री सार्क सम्मेलन में हिस्सा लेने पाकिस्तान जा रहे हैं, क्योंकि यह द्विपक्षीय नहीं बहुपक्षीय बैठक है (और मुझे लगता है कि उन्हें जाना चाहिए), लेकिन टाइम्स नाउ के ‘राष्ट्रभक्ति’ टेस्ट के मुताबिक तो अगर आप कराची में कोई साहित्यिक समारोह में हिस्सा लेने भी पहुंच गए, तो उसे भी राष्ट्रवादी नियमों का उल्लंघन माना जाएगा.

तो ऐसे में क्यों न यही नियम सरकार पर भी लागू किया जाए? या फिर आप में सरकार की निंदा या आलोचना करने की हिम्मत ही नहीं है और आपके लिए सत्ताधारियों से यह कहना ज्यादा आसान है कि मीडिया की लगाम कसी जाए? (अफसोस की टाइम्स नाउ कार्यक्रम में इसी शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा था), अगर सरकार ‘मीडिया के एक धड़े पर लगाम कस रही है’ – हालांकि प्रतीत तो ऐसा होता है कि गोस्वामीजी ने ही सूचना और प्रसारण मंत्रालय को ऐसा करने के लिए उकसाया है – तो क्या यह टाइम्स नाउ के एडिटर का फर्ज़ नहीं है कि वह इसके खिलाफ खड़े हों, न कि इसकी खुशी मनाएं? या फिर सारा गुस्सा, लंबी चौड़ी बातें सिर्फ पत्रकारों को डराने-धमकाने के लिए ही हैं, क्योंकि कम से कम यह काम सत्ताधारी बीजेपी से सवाल करने से तो आसान ही है?

वैसे जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के उस बयान का क्या, जिसमें उन्होंने कहा है कि अगर सुरक्षाबलों को बुरहान वानी की मौजूदगी का पता होता, तो हालात कुछ और होते? या फिर पीडीपी सांसद का खुलेआम बुरहान वानी वाली मुठभेड़ को ‘सुप्रीम कोर्ट के कानून का उल्लंघन’ कहना? क्या आपमें से किसी ने भी गोस्वामीजी को पीडीपी या उसकी गठबंधन पार्टी बीजेपी के ‘शांतिदूतों’ से सवाल करते देखा है?

कितनी दफा गोस्वामी दूसरे चैनलों को मिलने वाले एक्सक्लूसिव इंटरव्यू के लिए कहते पाए गए हैं कि उन्हें (गोस्वामी को) यह इसलिए नहीं मिला, क्योंकि वह सख्त सवाल पूछते हैं, हम नहीं. तो पाकिस्तान और कश्मीर मामले पर सरकार के लिए कहां हैं आपके ‘सख्त’ सवाल? सवाल जो मेरे हिसाब से बेमतलब के होते हैं, क्योंकि कूटनीति (और आपदा प्रबंधन) इतने छोटे मुद्दे नहीं है कि किसी प्राइम टाइम की अग्निपरीक्षा से होकर गुज़र सकें, लेकिन चूंकि गोस्वामीजी ने हम सबके लिए राष्ट्रीयता के नियम तय कर रखे हैं, तो फिर यही स्तर वह सरकार के लिए क्यों नहीं तय कर पा रहे हैं? क्या हुआ उनके उस चर्चित सत्ताविरोधीवाद का?

पिछले साल निर्भया गैंगरेप पर आधारित लेज़ली उडविन के वृत्तचित्र पर प्रतिबंध का गोस्वमी ने खुलेआम समर्थन किया था, जिसे एनडीटीवी पर दिखाया जाना था. यही नहीं, उन्होंने इसे आपत्तिजनक करार देते हुए इसके खिलाफ कड़ी कार्रवाई किए जाने की मांग भी की. फिर इसी साल ‘आज़ादी’ नारों को लेकर जेएनयू में हुए विवाद के बाद – जब सभी पत्रकारों ने पटियाला हाउस में रिपोर्टरों पर हुए हमलों को लेकर विरोध-प्रदर्शन किया, तब भी गोस्वामी और उनकी वरिष्ठ संपादकीय टीम के सदस्यों ने इस प्रदर्शन से दूरी बनाकर रखी. एक बार फिर उन्होंने उन सभी पत्रकारों को देशद्रोही घोषित कर दिया, जिन्होंने यह सवाल उठाया कि क्या सरकार की प्रतिक्रिया नाजायज़ थी? उनके इस उन्माद की हालिया किश्‍त देखकर साफ होता है कि मीडिया के बाकी हिस्से पर हमला करने का उनका पहले से चला आ रहा एक तरीका है, तो अगर यह लोकतंत्र के लिए खतरा नहीं है तो फिर क्या है?

एक आखिरी बात, जब उन्माद को उचित सिद्ध करने के लिए उनके पास कुछ बचता नहीं है, तो वह हाफिज़ सईद के उस वीडियो की शरण लेते हैं, जिसमें कश्मीर में दुष्प्रचार फैलाने के लिए मेरा और कांग्रेस पार्टी के नाम का इस्तेमाल किया गया है. मैं तो पहले ही इस आतंकवादी (जिसको माफी और आज़ादी दिया जाना पाकिस्तान के लिए शर्म की बात है) द्वारा अपने एजेंडे को सिद्ध करने के लिए मेरे नाम का इस्तेमाल किए जाने पर नाराज़गी जता चुकी हूं, लेकिन ट्विटर पर गोस्वामीजी के साथी उस आतंकी की बकवास को प्रमाणित करते फिर रहे हैं. इससे उनकी सोच के बारे में काफी कुछ पता चलता है.

खैर हमारे लिए चिंता की बात यह होनी चाहिए कि भारतीय मीडिया का एक बड़ा नाम सेंसरशिप में यकीन रखता है, अभिव्यक्ति की आज़ादी पर लगाम चाहता है, सच्चाई को तोड़ना-मरोड़ना चाहता है और सभी पत्रकारों को जेल भेजना चाहता है. जैसा कि मैंने कहा और मैं उस बात पर अभी भी अडिग हूं – धन्यवाद गोस्वामीजी…मेरी पत्रकारिता को नीचा दिखाने के लिए, क्योंकि आपके मुंह से तारीफ सुनना मेरे लिए ज्यादा बड़ा अपमान होता…

अनुवाद – कल्‍पना शर्मा .. as published in ndtv

(बरखा दत्त पत्रिकारिता के क्षेत्र में कई पुरस्कार जीत चुकी हैं और एनडीटीवी की कंसल्टिंग एडिटर हैं)

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