नागपुर: जिला न्यायालय में एक अजीब मामला सामने आया, जिसमें 36 साल पुराने एक आपराधिक मुकदमे का मूल रिकॉर्ड और कार्यवाही से जुड़े कागजात ही गायब पाए गए। यह मामला दर्शनकुमार अरोरा और एक अन्य आरोपी के खिलाफ दर्ज किया गया था।
उच्च न्यायालय के निर्देशों के तहत पुराने मामलों का निपटारा करने की प्रक्रिया में जब इस मामले की सुनवाई होनी थी, तब यह गंभीर खामी उजागर हुई। कोर्ट ने अभियोजन और पुलिस को निर्देश दिया कि वे मामले से जुड़े दस्तावेजों का पुनर्निर्माण करें, लेकिन वे इसमें असफल रहे। अंततः कोर्ट ने आरोप तय करने के लिए पर्याप्त सामग्री के अभाव में दोनों आरोपियों को बरी करते हुए मामला बंद कर दिया।
न्यायालय के महत्वपूर्ण निर्देश
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सीआईएस सिस्टम व रजिस्टर के आधार पर रिकॉर्ड पुनर्निर्मित: न्यायालय अधीक्षक ने संस्था रजिस्टर की प्रमाणित प्रति और सीआईएस सिस्टम से प्राप्त विवरण अदालत में प्रस्तुत किए। इन्हीं के आधार पर कार्यवाही का आंशिक पुनर्निर्माण किया गया।
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आईपीसी की धाराएं: अपराध रजिस्टर के अनुसार, आरोपियों पर भारतीय दंड संहिता की धारा 147, 148, 149 और 324 के अंतर्गत अपराध का आरोप था।
पुलिस और अभियोजन की विफलता
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दोनों आरोपियों को समन जारी किया गया, लेकिन पुलिस ने रिपोर्ट दी कि आरोपी लापता हैं।
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25 अक्टूबर 2024 को जारी आदेश के बावजूद अभियोजन पक्ष कोई भी दस्तावेज अदालत में दाखिल नहीं कर सका।
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न्यायालय ने माना कि इस स्थिति में केस को अनिश्चित काल तक लंबित रखना न्यायोचित नहीं है।
कोर्ट का निष्कर्ष
अदालत ने कहा कि अभियोजन न तो आरोपियों की उपस्थिति सुनिश्चित कर पाया, न ही कोई ऐसा दस्तावेज प्रस्तुत कर सका जिससे उनके खिलाफ आरोप तय किए जा सकें। यह मामला हाई कोर्ट के निर्देशों के अनुसार “टार्गेटेड केस” की सूची में शामिल था। कानूनी सीमाओं को देखते हुए अदालत ने आरोपियों को आरोपमुक्त कर केस को स्थायी रूप से बंद करने के आदेश जारी कर दिए।
यह मामला न्यायिक प्रक्रिया में रिकॉर्ड प्रबंधन की गंभीर खामियों को उजागर करता है और पुराने मुकदमों के डिजिटल संरक्षण की आवश्यकता पर जोर देता है।