हाई कोर्ट ने एफआईआर रद्द करने के दिए आदेश
नागपुर – जिला परिषद के विकास कार्यों से संबंधित टेंडर प्रक्रिया में फर्जी डिमांड ड्राफ्ट (डीडी) जमा करने और कार्य प्रारंभ होने से पहले सुरक्षा निधि वापस लेने के आरोप में दर्ज की गई एफआईआर को महाराष्ट्र हाई कोर्ट ने खारिज कर दिया है। कोर्ट ने यह निर्णय इस आधार पर दिया कि याचिकाकर्ताओं के खिलाफ कोई पुख्ता सबूत नहीं पाया गया।
यह मामला तब सामने आया जब जिला परिषद में शिकायत दर्ज की गई कि कुछ ठेकेदारों ने फर्जी डीडी लगाकर टेंडर प्राप्त किए और फिर बिना कार्य किए सुरक्षा निधि भी वापस ले ली। इस आधार पर सदर पुलिस थाने में 1 अगस्त 2022 को भारतीय दंड संहिता की धारा 420, 467, 468, 471 और 34 के तहत एफआईआर दर्ज की गई थी।
एफआईआर को चुनौती देते हुए ओमप्रकाश बर्डे व अन्य आरोपियों ने हाई कोर्ट में फौजदारी याचिका दायर की। सुनवाई के बाद कोर्ट ने पाया कि आरोप साबित करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य मौजूद नहीं हैं, और एफआईआर को रद्द कर दिया।
जांच के दौरान क्या सामने आया
शिकायतकर्ता को नोटिस जारी किए जाने पर उसके द्वारा दाखिल उत्तर में बताया गया कि जांच एजेंसी ने पंचनामा किया और जिला परिषद कार्यालय से संबंधित मूल फाइलें व रिकॉर्ड जब्त किए।
रिकॉर्ड की जांच में यह सामने आया कि 27 मई 2020 को 12,48,400 रुपये के डीडी संख्या 5255730 का इंडेक्स कॉलम में उल्लेख तो था, परंतु वास्तविक डीडी रिकॉर्ड में नहीं मिला। शिकायतकर्ता का दावा है कि याचिकाकर्ता ने यह फर्जी डीडी जिला परिषद की हिरासत से चुराया।
इसके अलावा, रिकॉर्ड से यह भी ज्ञात हुआ कि सह-अभियुक्त अंकुश काकड़े ने टेंडर समझौते में निर्धारित तिथि से पूर्व ही 8,75,000 रुपये की सुरक्षा राशि वापस ले ली। शिकायत में यह आरोप लगाया गया कि सभी अभियुक्तों ने आपसी साजिश के तहत जिला परिषद को फर्जी दस्तावेज़ प्रस्तुत किए।
कोर्ट की टिप्पणी
कोर्ट ने कहा कि शिकायतकर्ता द्वारा दिए गए जवाब और जिला परिषद के मुख्य कार्यकारी अधिकारी द्वारा की गई आंतरिक जांच में याचिकाकर्ताओं के खिलाफ कोई ठोस प्रमाण नहीं मिला है।
कोर्ट का मानना है कि उपलब्ध तथ्यों के आधार पर प्रथम दृष्टया यह सिद्ध नहीं होता कि याचिकाकर्ता अपराध में लिप्त थे। जिला परिषद की जांच रिपोर्ट में भी कोई ऐसा संकेत नहीं है जिससे यह निष्कर्ष निकाला जा सके कि उनके विरुद्ध आपराधिक मुकदमा चलाना न्यायसंगत होगा।
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि आपराधिक मामलों में पुख्ता और ठोस साक्ष्य की आवश्यकता होती है, और ऐसे हालात में मुकदमा चलाने का कोई औचित्य नहीं बनता। इसी आधार पर एफआईआर को रद्द करने के आदेश दिए गए।