नागपुर: सनातन हिंदू संस्कृति में आस्था रखने वाला दुनिया में शायद ही कोई ऐसा परिवार होगा जो गीता प्रेस गोरखपुर के नाम से परिचित न होगा। इस देश में और दुनिया के हर कोने में रामायण, गीता, वेद, पुराण और उपनिषद से लेकर प्राचीन भारत के ऋषियों- मुनियों की कथाओं को पहुंचाने का एक मात्र श्रेय गीता प्रेस गोरखपुर के संस्थापक भाईजी हनुमान प्रसाद पोद्दार को है। प्रचार, प्रसार से दूर रहकर एक अकिंचन सेवक और निष्काम कर्मयोगी की तरह भाईजी ने हिंदू संस्कृति की मान्यताओं को घर- घर तक पहुंचाने में जो योगदान दिया है इतिहास में उसकी मिसाल मिलना ही मुश्किल है।
भारतीय पंचांग के अनुसार विक्रम संवत के वर्ष 1949, सन 1892 ई. में अश्विन कृष्ण की प्रदोष के दिन उनका जन्म हुआ। इस वर्ष तिथि शनिवार 6 अक्तूबर को है। राजस्थान के रतनगढ़ में लाला भीमराज अग्रवाल और उनकी पत्नी रिखीबाई हनुमान भक्त थे। तो उन्होंने अपने पुत्र का नाम हनुमान प्रसाद रख दिया। दो वर्ष की आयु में ही इनकी माता का स्वर्गवास हो गया और इनका पालन पोषण दादी मां ने किया। दादी मां के धार्मिक संस्कारों के बीच बालक हनुमान को बचपन से ही गीता, रामायण, वेद, उपनिषद और पुराणों की कहानियां पढ़ने सुनने को मिली। इन संस्कारों का बालक पर गहरा असर पड़ा। बचपन में ही हनुमान कवच का पाठ सिखाया गया। निंबार्क संप्रदाय के संत ब्रजदास जी ने बालक को दीक्षा दी।
युवावस्था में देशसेवा, समाजसेवा की प्रवृत्ति प्रबल होने के कारण उन्होंने स्वदेशी आंदोलन से शुद्ध खादी प्रयोग व्रत ले लिया। क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय भाग लेने के कारण शिमलापाल में 21 माह नजरबंद किया गया। बंगाल के क्रांतिकारी अरविंद घोष से उनका निकट संपर्क रहा। वहां लाला लाजपतराय, महात्मा गांधी, पं. महनमोहन मालवीय, संगीताचार्य विष्णु दिगंबर से घनिष्ठ संपर्क हुआ। सभी के द्वारा प्रेम पूर्वक ‘भाई’ संबोधन करने से उनका उपनाम ‘भाईजी’ पड़ गया।
भगवान दर्शन की प्रबलोत्कंठा होने पर 1927 ई. में भगवान विष्णु ने दर्शन देकर उन्हें प्रवृत्ति मार्ग में रहते हुए भगवद् भक्ति तथा भगवन्नाम का आदेश दिया। क्रमशः दिव्य लोकों से संपर्क के साथ ही अलक्षित रहकर विश्वभर के आध्यात्मिक नियामक व संचालक दिव्य संत मंडल में अंतर्निदेश हो गया। कृपा शक्ति पर पूर्णतया निर्भर भक्त पर रिझकर भगवान ने समय समय पर उन्हें श्री राम, शिव, शक्ति, गीतावक्ता श्री कृष्ण, श्री वनराज कुमार व श्री राधाकृष्ण दिव्य युगल रूप मंे दर्शन देकर तथा अपने स्वरूप तत्व का बोझ करा कर कृतार्थ किया। उनके द्वारा हिंदी साहित्य को मौलिक शब्दों का नया भंडार मिला। उनकी गद्य पद्यात्मक रचनाएं अपने विषय की मील की पत्थर है। उनके द्वारा संपादित ‘कल्याण’ के 44 विशेषांक अपने विषय के विश्वकोष हैं। हमारे आर्ष ग्रंथों को विपुल मात्रा में प्रकाशित करके विश्व के कोने- कोने मंे पहुंचा दिया। जिससे वे सुदीर्घ काल के लिये सुरक्षित हो गए। हिंदी और सनातन धर्म की उनकी सेवा युगों तक लोगांे के लिये प्रेरणास्त्रोत है।
हमारी भावी पीढ़ी को यह विश्वास करने में कठिनता होगी कि बीसवीं सदी के आस्थाहीन युग मंे जो कार्य कई संस्थाएं मिलकर नहीं कर सकती वह कल्पनातीत कार्य एक भाईजी से कैसे संभव कर हुआ। राधाष्टमी महोत्सव का प्रवर्तक और रसाद्वैत राधाकृष्ण के प्रति नई दिशा व मौलिक चिंतन इस युग को उनकी महान देन है। महाभाव- रसराज के लीलासिंधु में सर्वदालीन रहते हुए 22 मार्च1971 को इस धरा धाम से अपनी लीला का संवरण कर लिया।