अब तक 14 जगहों पर दे चुके है प्रतिकृति भेट
नागपुर: रेलवे में खलाशी का काम करनेवाले 65 के दयाराम राऊत लकड़ी की दीक्षाभूमि बनाते है. अब तक उन्होंने 14 जगहों पर यह दीक्षाभूमि भेट दी है. इसे बनाने में 3 महीने लगते है. खासबात यह है कि इसके लिए उन्होंने कही पर भी प्रशिक्षण नहीं लिया है. जयवंत नगर के साईबाबा कॉलेज रोड पर रहनेवाले दयाराम राऊत को वुडवर्क (लकड़ी का काम ) क्या होता है यह पता नहीं है. एक बार बेटी की जिद पर लकड़ी का छोटा घर तैयार करके दिया. इस घर की खुप प्रशंसा हुई. लकड़ी से और क्या बनाया जा सकता है, दीक्षाभूमि बनाई जा सकती है क्या, यह विचार उनके मन में आया.
लेकिन इतनी बड़ी वास्तु कला बनाने की हिम्मत नहीं हो रही थी. इसके बाद कईयों बार उन्होंने दीक्षाभूमि को देखा. घंटो दीक्षाभूमि में बैठे रहे. बाबासाहेब के महान कार्यो की याद में उनकी आंखो से आंसू बहते थे और एक बार दीक्षाभूमि से आकर उन्होंने दीक्षाभूमि बनाने की शुरुवात की. 1993 में दीक्षाभूमि की पहली प्रतिकृति तैयार की गई. लेकिन वह सही नहीं थी. दो से तीन बार उन्होंने प्रयास किया और हर बार उन्होंने गलती सुधारी.
दयाराम लकड़ी से दीक्षाभूमि तैयार करने की बात सुनकर रेलवे के उनके कुछ मित्रो ने उनकी सहायता की. रेलवे से आकर, छुट्टी के दिन और छुट्टी लेकर चार पांच महीनो में हूबहू प्रतिकृति आखरिकार उन्होंने तैयार कर ली. यह पहली प्रतिकृति उन्होंने चिंचोली स्थित डॉ. बाबसाहेब के म्यूजियम में भेट दी. उस दौरान वामनराव गोडबोले ने यह प्रतिकृति स्वीकार की. उनके द्वारा की गई तारीफ़ के कारण राऊत का आत्मविश्वास बढ़ गया.
चिंचोली के बाद उन्होंने मुंबई के चैत्यभूमि में 6 दिसंबर 1999 को यह प्रतिकृति भेट दी. इसके बाद वे रुके नहीं. दीक्षाभूमि की प्रतिकृति बाबासाहेब से सम्बंधित हर जगह पर रहे ऐसा उन्होंने निष्चय किया. बाबासाहेब के जन्मस्थान महू महाबोधि महाविहार, समता सैनिक दल की मदद से महाड के समाजक्रांति भूमि में, तळेगाव दाभाड़े के डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के बंगले में, पुणे के सांस्कृतिक भवन में बाबासाहेब के पूर्वजों के गांव रत्नागिरी जिले के मंडनगढ तहसील के आंबडवे गांव में, मातोश्री रमाबाई इनकी मां के गांव रत्नागिरी जिले के वंणदगाव में, केलझर, गोधनी फेटरी यहां के बुद्ध विहार और दीक्षाभूमि में यह प्रतिकृति उन्होंने भेंटस्वरूप दी है.
बाबासाहेब ने येवला के जिस मैदान पर धर्मान्तर की ऐतिहासिक घोषणा की उस ‘मुक्तिभूमि ‘ की जल्द ही प्रतिकृति की भेट वे देनेवाले है. इस दौरान उन्होंने भीमा कोरेगांव के विजयस्तम्भ की प्रतिकृति भी तैयार की है. इसमें से एक भीमा कोरेगांव तो वही एक दीक्षाभूमि में दी है. दीक्षाभूमि में आज भी राऊत की प्रतिकृतियां प्रदर्शन में रखी गई है. चार बाय चार फीट में साकारी हुई दीक्षाभूमि प्रतिकृति की इंच दर इंच की कोई भी जानकारी उन्होंने कागज पर नहीं लिखी है. प्रतिकृति में कितने खंबे होने चाहिए. उसकी हाइट कितनी, चौड़ाईकितनी इसका पूरा माप उनके दिमाग में फीट है.
प्रतिकृति के विषय में कोई भी प्रश्न वे क्षणभर में ही बता देते है. राऊत कहते है बाबासाहेभ ने हमारे लिए बहोत किया है उन्होंने हमें खीचड़ से बाहर निकाला है. उनका कहना है की उनकी द्वारा बनाई गई प्रतिकृति के कारण किसी की चेतना और नीतिमत्ता जगाने में प्रेरणा मिलती हो तो उनका यह परिश्रम सार्थक होगा.