असत्य पर सत्य की विजय?
नहीं!वास्तविकता कुछ और।
सत्य?
दमित!
असत्य?
दंभित!
यही है आज का सत्य-कड़वा सत्य ।
सत्य को पावों तले रौंद, असत्य बे-खौफ तांडव कर रहा है।यह स्थिति समाज के हर क्षेत्र, हर वर्ग, हर विधा में विद्यमान है।कारण,नग्न सामने विद्यमान है।हमने आँखें बंद कर रखी हैं।अपराध-बोध से ग्रस्त हम देखने को तैयार नहीं।भयभीत हैं हम।यह अवस्था समाज के हर वर्ग की है।
चूँकि मीडिया से हूँ ,मीडिया की बातें करूंगा।मीडिया का ताज़ा सच चिन्हित करूँगा।बातें पत्रकारिता की होंगी।
सर्वत्र पूछा जा रहा है कि क्या पत्रकार आज अपने धर्म का पालन कर रहे हैं? पत्रकारीय मूल्य-सिद्धांत-नैतिकता मरणासन्न अवस्था में क्यों?सत्ता-समाज को आईना दिखाने सबंधी कर्तव्य से विमुख क्यों?हमें ‘मंडी ‘ में कौन बैठा रहा है?और तो और, स्वयं प्रधानमंत्री मोदी सार्वजनिक रूप से हमें “बाजारू ” कैसे निरूपित कर गये?
साफ है,दोषी हमारी कर्तव्य-विमुखता है।हाँ, कर्तव्य- विमुख हो गये हैं हम!मूल्य-सिद्धांत-नैतिकता को बलाये-ताक रख,नग्न हो गये हैं हम।आईना दिखाने के पूर्व, आईने पर स्वार्थ का सुनहरा आवरण डाल देते हैं हम!फिर सच कहाँ?कैसे?
ऐसे में देश की जर्जर हो चुकी अर्थ-व्यवस्था का सच जनता के सामने कौन रखेगा?ठप उद्योग-धंधों, उत्पादन-निर्यात की कंगाली, सूनसान बाजार,विलुप्त नकदी, अविश्वसनीय व्यवस्था आदि की आवश्यक जानकारी से देश की जनता को वंचित रख ,उसकी समझ को कुंद करने के अपराधी बन गये हैं हम!आने वाले दिनों में खाली जेब जनता,सूनसान बाजार,बंद औद्योगिक इकाइयां ,घोर अविश्वसनीय भारत सर्वांग-नग्न रूप में वैश्विक चौराहे पर नजर आये, तो क्षमा करेंगे, संपूर्ण जिम्मेदारी मीडिया/पत्रकारों पर!रोग को छुपा, उन्हें इलाज से वंचित रखने के दोषी करार दिए जाएंगे वे।कर्तव्य-विमुखता की आपराधिक परिणति!क्यों और कैसे?सत्ता-प्रदत्त,मधु-चासनी से लबरेज़ अंगुलियों में उलझी कलमें,भला सत्य शब्दांकित करें भी तो कैसे?
खबरिया चैनलों पर चंद्रयान-2 की ‘कवरेज़ ‘ को याद करें।’मोदी की मुट्ठी में चांद ‘ को कैद करवा देने वाले किसी भी चैनल ने “इसरो ” से मिशन की विफलता का कारण पूछा?किसी ने अपने दर्शकों, अर्थात् देश को ये बताया कि चंद्रयान-2 की तैयारी की प्रक्रिया में आवश्यक कल-पुर्जे, उपकरणों की आपूर्ति कहाँ से हुई थी?इस पहलू को जानबूझ कर नजरअंदाज किया गया।क्यों?
गंभीर, उद्देश्यपूर्ण पत्रकारिता की जगह सतही, स्वार्थी पत्रकारिता को तरजीह!कारण स्पष्ट हैं, बताने की जरूरत नहीं ।
खेद है,पत्रकारिताके वर्तमान कालखंड को मैं “खबरों का अंधायुग ” निरूपित करने को बाध्य हूँ ।हाँ, ये खबरों का खतरनाक अंधा-युग हीं है, जहाँ सच को दबा, झूठ परोसा जा रहा है ।समाज को बौद्धिक-दारिद्र्य की अवस्था में पहुँचाने के शासकीय षडयंत्र के मददगार बन रहे हैं हम।
अब चुनौती कि “वाॅच डाॅग” की भूमिका का निर्वाह करते हुए, आवरण-हीन आईना कौन/कैसे दिखाए?
चुनौती कि लगभग ‘मंडी ‘ में परिवर्तित मीडिया को वापस, पूरी पवित्रता के साथ, सामाजिक न्याय-मंदिर के रूप में पुनर्स्थापित करने की पहल कौन करता है?
