Published On : Wed, Dec 6th, 2017

विहिप के भरोसे पलता है, मंदिर के लिए जीता है

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बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना को आज (6 दिसंबर) पूरे 25 साल हो गए। ये एक ऐसी घटना थी जिसने पूरे देशे के धार्मिक सौहार्द को हिलाकर रख दिया था। 6 दिसंबर 1992 को हिंदू कार सेवकों की लाखों की भीड़ ने बाबरी मस्जिद के ढांचे को ढहा दिया। इस घटना के बाद देश के कई हिस्सों में हिंसक घटनाएं हुईं। खुद उत्तर प्रदेश में भी जगह-जगह बड़े पैमाने पर दंगे हुए। इस घटना में सैकड़ों ने अपने अजीज (प्रिय) लोगों को खो दिया। इनमें से एक हैं सुभाष पांडे, जिनके पिता की मौत पुलिस की गोली लगने से हो गई। तब सुभाष महज दस साल के थे जब उन्होंने अपने पिता रमेश पांडे के मृत शरीर को देखा।

सुभाष बताते हैं, ‘मैं नहीं जानता की क्या ढांचे (बाबरी मस्जिद) की चोटी पर चढ़ने की कोशिश के कारण उन्हें गोली मारी गई थी या मौत की कोई और वजह थी। ये बात मैं कभी पता नहीं कर सका। मुझे याद के उनके अंतिम संस्कार के दौरान प्रदर्शन किया जा रहा था। उनके शरीर पर गोलियों के निशान थे।’

सुभाष बताते हैं कि बाबरी मस्जिद पर हमला करने की कोशिश में 30 अक्टूबर और दो नवंबर, 1990 को पुलिस ने कारसेवकों को पर गोलीबारी की। तब राज्य में कल्याण सिंह की सरकार थी। आधिकारिक तौर पर तब 16 लोगों की मौत हुई थी। मरने वालों में सुभाष के पिता रमेश भी शामिल थे। उस घटना को याद करते हुए सुभाष कहते हैं, ‘पिता की मौत के बाद दादी ने मेरी देखभाल की। परिवार में मेरे दो भाई और दो बहनें हैं। मेरा छोटा भाई तब मेरी गोद में था जब मेरे पिता माए गए। परिवार की देखभाल के लिए मुझे 12वीं के बाद पढ़ाई छोड़नी पड़ी। युवावस्था में ही मेरा विवाह हो गया। अब मेरे तीन बच्चे हैं जबकि बड़ी बेटी कॉलेज में पढ़ती है।’

सुभाष अब विश्व हिंदू परिषद की कार्यशाला में काम करते हैं जो प्रस्तावित मंदिर की वर्कशाप है। वह बताते हैं, ‘जो मैं काम करता हूं उसका भुगतान मिलता है। जब भी पैसों की जरूरत होती है तो विएचपी मेरी मदद करता है। विवाह के खर्च का ज्यादातर हिस्सा विहिप से ही मिला।’

सुभाष का मानना है कि उनके पिता की मौत की वजह दंगे थे। सुभाष के अनुसार, ‘राम मंदिर बने ये सभी हिंदू चाहते हैं। मेरे पिता चाहते थे कि राम मंदिर बने। मैं भी ऐसा ही चाहता हूं। मैं जानता हूं कि पिता की मौत के बाद हमने बुरी हालत में जिंदगी गुजारी है। उनकी मौत उस चीज के लिए हुई जिसमें उनका विश्वास था। मंदिर का निर्माण करना ही होगा। क्योंकि मैं जिस कार्यशाला में काम करता हूं वहां मंदिर के स्तंभ और स्लैब तैयार किए जा रहे हैं।’ सुभाष के अनुसार अयोध्या की लड़ाई काफी ज्यादा लंबी नहीं रह गई है।